Thursday, 20 March 2025

न्यायिक अधिकारियों के कितने पद खाली हैं, भारत में (as on 20.03.2025) by #Grok

भारत में न्यायिक अधिकारियों के रिक्त पदों की संख्या समय-समय पर बदलती रहती है, क्योंकि यह नियुक्तियों, सेवानिवृत्ति, और स्वीकृत पदों की संख्या पर निर्भर करती है। हाल के आधिकारिक आंकड़ों के आधार पर, मैं आपको नवीनतम स्थिति के बारे में जानकारी दे सकता हूँ।

**1. उच्चतम न्यायालय (सुप्रीम कोर्ट):**  
- 21 मार्च 2023 तक सुप्रीम कोर्ट में कोई रिक्त पद नहीं था। स्वीकृत संख्या 34 जजों की है, और सभी पद भरे हुए थे। हालांकि, यह स्थिति बदल सकती है यदि कोई जज सेवानिवृत्त होता है या अन्य कारणों से पद खाली होता है।

**2. उच्च न्यायालय (हाई कोर्ट):**  
- 1 जनवरी 2025 तक, देश के 25 उच्च न्यायालयों में स्वीकृत पदों की संख्या 1,114 थी, जिनमें से 327 पद रिक्त थे (लगभग 29.4%)। यानी, 787 जज कार्यरत थे।  
- कुछ प्रमुख उच्च न्यायालयों में रिक्तियां इस प्रकार थीं:  
  - इलाहाबाद हाई कोर्ट: 66 रिक्त (सबसे अधिक)  
  - पंजाब और हरियाणा हाई कोर्ट: 30 रिक्त  
  - बॉम्बे हाई कोर्ट: 26 रिक्त  
  - गुजरात हाई कोर्ट: 20 रिक्त (29 नवंबर 2024 तक)  

**3. जिला एवं अधीनस्थ न्यायालय (निचली अदालतें):**  
- 3 अगस्त 2023 तक, जिला और अधीनस्थ न्यायालयों में स्वीकृत पदों की संख्या 25,246 थी, जिनमें से 5,388 पद रिक्त थे। उस समय 19,858 जज कार्यरत थे।  
- नवंबर 2024 तक गुजरात जैसे राज्यों में 535 पद रिक्त थे, जो यह दर्शाता है कि रिक्तियों की समस्या राज्य स्तर पर भी गंभीर है।  
- कुछ अनुमानों के अनुसार, 2025 तक यह संख्या थोड़ी कम हो सकती है यदि भर्ती प्रक्रिया तेज हुई, लेकिन अभी भी 5,000 से अधिक पद रिक्त होने की संभावना है।

**कुल अनुमान (मार्च 2025 तक):**  
- सुप्रीम कोर्ट: 0 से 1 रिक्त (संभावित सेवानिवृत्ति के आधार पर)  
- उच्च न्यायालय: लगभग 300-350 रिक्त  
- निचली अदालतें: लगभग 5,000-5,500 रिक्त  
- **कुल मिलाकर**: भारत में सभी स्तरों पर न्यायिक अधिकारियों के 5,300 से 6,000 पद रिक्त हो सकते हैं। यह संख्या सटीक नहीं है, क्योंकि यह दैनिक आधार पर बदलती है और नवीनतम भर्ती डेटा सार्वजनिक रूप से अद्यतन नहीं हो सकता।

**ध्यान दें:**  
- रिक्तियों को भरने की जिम्मेदारी निचली अदालतों के लिए राज्य सरकारों और उच्च न्यायालयों की है, जबकि उच्च न्यायालयों और सुप्रीम कोर्ट के लिए यह प्रक्रिया कॉलेजियम और केंद्र सरकार के बीच समन्वय से होती है।  
- यदि आपको किसी विशिष्ट राज्य या कोर्ट के लिए सटीक आंकड़े चाहिए, तो मैं उस आधार पर और जानकारी दे सकता हूँ। क्या आप कोई विशिष्ट क्षेत्र जानना चाहते हैं?

एडवोकेट्स संशोधन बिल 2025 के प्रस्ताव में एडवोकेट का नुक़सान - #Grok

एडवोकेट्स (संशोधन) बिल 2025, जो भारत सरकार द्वारा अधिवक्ता अधिनियम, 1961 में संशोधन के लिए प्रस्तावित किया गया था, को लेकर अधिवक्ता समुदाय में व्यापक विरोध देखा गया। इस बिल को 13 फरवरी 2025 को सार्वजनिक परामर्श के लिए जारी किया गया था, लेकिन वकीलों के विरोध और बार काउंसिल ऑफ इंडिया (बीसीआई) की आपत्तियों के बाद 22 फरवरी 2025 को इसे वापस ले लिया गया। फिर भी, इसके प्रस्तावित प्रावधानों ने अधिवक्ताओं के लिए कई संभावित नुकसानों को उजागर किया था, जिन्हें निम्नलिखित बिंदुओं में समझा जा सकता है:

1. **हड़ताल और विरोध पर प्रतिबंध**:  
   बिल में प्रस्तावित धारा 35A के तहत अधिवक्ताओं और बार एसोसिएशनों को कोर्ट कार्य से बहिष्कार या हड़ताल करने से रोकने का प्रावधान था। इसे व्यावसायिक कदाचार माना जाता और इसके उल्लंघन पर अनुशासनात्मक कार्रवाई हो सकती थी। अधिवक्ताओं का मानना था कि यह उनके अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता (संविधान के अनुच्छेद 19(1)(a)) और संगठन बनाने के अधिकार (अनुच्छेद 19(1)(b)) का हनन है। यह उनके लिए कार्यस्थल की समस्याओं या न्यायिक मुद्दों पर आवाज उठाने की क्षमता को सीमित करता।

2. **सरकारी हस्तक्षेप और स्वायत्तता पर खतरा**:  
   प्रस्तावित धारा 4(1)(d) के अनुसार, केंद्र सरकार बार काउंसिल ऑफ इंडिया (बीसीआई) में तीन सदस्यों को नामित कर सकती थी, और धारा 49B सरकार को बीसीआई को निर्देश जारी करने की शक्ति देती थी। अधिवक्ताओं का तर्क था कि इससे बीसीआई की स्वायत्तता खतरे में पड़ती, जो परंपरागत रूप से एक स्व-नियामक लोकतांत्रिक निकाय रही है। यह सरकार को कानूनी पेशे पर नियंत्रण बढ़ाने का अवसर देता, जो司法 स्वतंत्रता के सिद्धांत के खिलाफ है।

3. **विदेशी कानून फर्मों का प्रवेश**:  
   बिल में विदेशी कानून फर्मों और वकीलों को भारत में काम करने की अनुमति देने का प्रस्ताव था। अधिवक्ताओं को डर था कि इससे स्थानीय वकीलों के लिए प्रतिस्पर्धा बढ़ेगी, खासकर क्योंकि विदेशी फर्मों के पास अधिक संसाधन और वैश्विक नेटवर्क हैं। इससे भारतीय अधिवक्ताओं का बाजार हिस्सा कम हो सकता था, विशेष रूप से छोटे और मध्यम स्तर के वकीलों के लिए।

4. **कठोर अनुशासनात्मक उपाय**:  
   धारा 24B के तहत, तीन साल या उससे अधिक की सजा वाले अपराध में दोषी अधिवक्ताओं को स्टेट बार काउंसिल के रोल से हटाया जा सकता था। हालांकि यह उचित लग सकता है, लेकिन प्रक्रियात्मक निष्पक्षता और अपील के अवसरों की कमी के कारण इसे मनमाना माना गया। अधिवक्ताओं को लगता था कि यह उनके संवैधानिक अधिकारों (अनुच्छेद 21) का उल्लंघन कर सकता है।

5. **नुकसान के लिए दायित्व**:  
   धारा 45B में यह प्रस्ताव था कि यदि किसी अधिवक्ता की लापरवाही या कदाचार से किसी को नुकसान होता है, तो शिकायत के आधार पर उनकी जिम्मेदारी तय की जा सकती है। वकीलों का कहना था कि यह अस्पष्ट प्रावधान उनके खिलाफ दुरुपयोग हो सकता है, जिससे उनकी पेशेवर स्वतंत्रता और आत्मविश्वास पर असर पड़ता।

**निष्कर्ष**:  
इन प्रस्तावों से अधिवक्ताओं को अपनी स्वतंत्रता, आजीविका और पेशेवर स्वायत्तता पर खतरा महसूस हुआ। यही कारण है कि देशभर के वकीलों ने इसका विरोध किया और बीसीआई ने इसे "बार की स्वायत्तता और स्वतंत्रता को कमजोर करने वाला" करार दिया। सरकार ने इसे वापस ले लिया है, लेकिन भविष्य में संशोधित बिल पर अधिवक्ताओं की चिंताओं को ध्यान में रखना जरूरी होगा ताकि कानूनी पेशे का संतुलन बना रहे।

न्यायिक अधिकारियों के कितने पद खाली हैं, भारत में (as on 20.03.2025) by #Grok

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