Sunday, 21 October 2018

"तुलसी दोहा शतक'' में गोस्वामी तुलसीदास ने किया था राम मंदिर को तोड़े जाने का जिक्र :: #AdvAnshuman

एक तर्क हमेशा दिया जाता है कि अगर बाबर ने राम मंदिर तोड़ा होता तो यह कैसे सम्भव होता कि महान रामभक्त और राम चरित मानस के रचयिता गोस्वामी तुलसीदास इसका वर्णन पाने इस ग्रन्थ में नहीं करते ?

ये बात सही है कि रामचरित मानस में गोस्वामी जी ने मंदिर विध्वंस और बाबरी मस्जिद का कोई वर्णन नहीं किया है। हमारे वामपंथी इतिहासकारों ने इसको खूब प्रचारित किया और जन मानस में यह सिद्ध करने का प्रयास किया कि कोई मंदिर टूटा ही नहीं था और यह सब झूठ है।

यह प्रश्न इलाहाबाद उच्च न्यायालय के समक्ष भी था। इलाहाबाद उच्च नयायालय में जब बहस शुरू हुयी तो श्री रामभद्राचार्य जी को Indian Evidence Act के अंतर्गत एक expert witness के तौर पर बुलाया गया और इस सवाल का उत्तर पूछा गया।  उन्होंने कहा कि यह सही है कि श्री रामचरित मानस में इस घटना का वर्णन नहीं है लेकिन तुलसीदास जी ने इसका वर्णन अपनी अन्य कृति 'तुलसी दोहा शतक' में किया है जो कि श्री रामचरित मानस से कम प्रचलित है।

अतः यह कहना गलत है कि तुलसी दास जो कि बाबर के समकालीन भी थे,ने राम मंदिर तोड़े जाने की घटना का वर्णन नहीं किया है और जहाँ तक राम चरित मानस कि बात है उसमे तो कहीं भी मुग़लों की भी चर्चा नहीं है इसका मतलब ये निकाला जाना गलत होगा कि तुलसीदास के समय में मुगल नहीं रहे।

हमारे वामपंथी विचारको तथा इतिहासकारो ने ये भ्रम की स्थति उतपन्न की,कि रामचरितमानस में ऐसी कोई घटना का वर्णन नही है . श्री नित्यानंद मिश्रा ने जिज्ञाशु के एक पत्र व्यवहार में "तुलसी दोहा शतक " का अर्थ इलाहाबाद हाई कोर्ट में प्रस्तुत किया है | हमनें भी उन दोहों के अर्थो को आप तक पहुँचाने का प्रयास किया है | प्रत्येक दोहे का अर्थ उनके नीचे दिया गया है , ध्यान से पढ़ें |

गोस्वामी जी ने 'तुलसी दोहा शतक' में इस बात का साफ उल्लेख किया है कि किस तरह से राम मंदिर को तोड़ा गया

मंत्र उपनिषद ब्रह्माण्हू बहु पुराण इतिहास।
जवन जराए रोष भरी करी तुलसी परिहास।।

सिखा सूत्र से हीन करी, बल ते हिन्दू लोग।
भमरी भगाए देश ते, तुलसी कठिन कुयोग।।

सम्बत सर वसु बाण नभ, ग्रीष्म ऋतू अनुमानि।
तुलसी अवधहि जड़ जवन, अनरथ किये अनमानि।।

रामजनम महीन मंदिरहिं, तोरी मसीत बनाए।
जवहि बहु हिंदुन हते, तुलसी किन्ही हाय।।

दल्यो मीरबाकी अवध मंदिर राम समाज।
तुलसी ह्रदय हति, त्राहि त्राहि रघुराज।।

रामजनम मंदिर जहँ, लसत अवध के बीच।
तुलसी रची मसीत तहँ, मीरबांकी खाल नीच।।

रामायण घरी घंट जहन, श्रुति पुराण उपखान।
तुलसी जवन अजान तहँ, कइयों कुरान अजान।।

अर्थात :

मन्त्र उपनिषद ब्राह्मनहुँ,

बहु पुरान इतिहास ।

जवन जराये रोष भरि,

करि तुलसी परिहास ॥

श्री तुलसीदास जी कहते हैं कि क्रोध से ओतप्रोत यवनों ने बहुत सारे मन्त्र (संहिता), उपनिषद, ब्राह्मणग्रन्थों (जो वेद के अंग होते हैं) तथा पुराण और इतिहास सम्बन्धी ग्रन्थों का उपहास करते हुये उन्हें जला दिया ।

सिखा सूत्र से हीन करि,

बल ते हिन्दू लोग ।

भमरि भगाये देश ते,

तुलसी कठिन कुजोग ॥

श्री तुलसीदास जी कहते हैं कि ताकत से हिंदुओं की शिखा (चोटी) और यग्योपवित से रहित करके उनको गृहविहीन कर अपने पैतृक देश से भगा दिया ।

बाबर बर्बर आइके,

कर लीन्हे करवाल ।

हने पचारि पचारि जन,

जन तुलसी काल कराल ॥

श्री तुलसीदास जी कहते हैं कि हाँथ में तलवार लिये हुये बर्बर बाबर आया और लोगों को ललकार ललकार कर हत्या की । यह समय अत्यन्त भीषण था ।

सम्बत सर वसु बान नभ,

ग्रीष्म ऋतू अनुमानि ।

तुलसी अवधहिं जड़ जवन,

अनरथ किय अनखानि ॥

(इस दोहा में ज्योतिषीय काल गणना में अंक दायें से बाईं ओर लिखे जाते थे, सर (शर) = 5, वसु = 8, बान (बाण) = 5, नभ = 1 अर्थात विक्रम सम्वत 1585 और विक्रम सम्वत में से 57 वर्ष घटा देने से ईस्वी सन 1528 आता है ।)

श्री तुलसीदास जी कहते हैं कि सम्वत् 1585 विक्रमी (सन 1528 ई) अनुमानतः ग्रीष्मकाल में जड़ यवनों अवध में वर्णनातीत अनर्थ किये । (वर्णन न करने योग्य) ।

राम जनम महि मंदरहिं,

तोरि मसीत बनाय ।

जवहिं बहुत हिन्दू हते,

तुलसी कीन्ही हाय ॥

जन्मभूमि का मन्दिर नष्ट करके, उन्होंने एक मस्जिद बनाई । साथ ही तेज गति उन्होंने बहुत से हिंदुओं की हत्या की । इसे सोचकर तुलसीदास शोकाकुल हुये ।

दल्यो मीरबाकी अवध,

 मन्दिर राम समाज ।

तुलसी रोवत ह्रदय हति,

त्राहि त्राहि रघुराज ॥

मीरबकी ने मन्दिर तथा रामसमाज (राम दरबार की मूर्तियों) को नष्ट किया । राम से रक्षा की याचना करते हुए विदिर्ण ह्रदय तुलसी रोये ।

राम जनम मन्दिर जहाँ,

तसत अवध के बीच ।

तुलसी रची मसीत तहँ,

मीरबकी खल नीच ॥

तुलसीदास जी कहते हैं कि अयोध्या के मध्य जहाँ राममन्दिर था वहाँ नीच मीरबकी ने मस्जिद बनाई ।

रामायन घरि घट जहाँ,

श्रुति पुरान उपखान ।

तुलसी जवन अजान तँह,

करत कुरान अज़ान ॥

श्री तुलसीदास जी कहते है कि जहाँ रामायण, श्रुति, वेद, पुराण से सम्बंधित प्रवचन होते थे, घण्टे, घड़ियाल बजते थे, वहाँ अज्ञानी यवनों की कुरआन और अज़ान होने लगे।

अब यह स्पष्ट हो गया कि गोस्वामी तुलसीदास जी की इस रचना में जन्मभूमि विध्वंस का विस्तृत रूप से वर्णन किया है।

Sunday, 12 August 2018

गहरा इतिहास छिपा है ‘’ईदुज़ज़ूहा" (बकरीद) एवं कुर्बानी के पीछे:-

इस्लाम धर्म का खास त्यौहार ‘’ईदुज़ज़ूहा" दुनिया भर में मनाया जाता है। इसे बकरीद के नाम से भी जाना जाता है, क्योंकि इस दिन धार्मिक मर्यादाओं के अनुसार बकरे की कुर्बानी दी जाती है। वर्ष भर में इस्लाम धर्म में दो ऐसे त्यौहार आते हैं, जो सभी में हर्षोल्लास भर देते हैं।

*ईदुज़ज़ूहा (बकरीद) का महत्व*
ईदुज़ज़ूहा यह नाम अधिकतर अरबी देशों में ही लिया जाता है, लेकिन भारतीय उप महाद्वीप में इस त्यौहार को बकरीद कहा जाता है, इसका कारण है इस दिन हलाल जानवर की कुर्बानी दी जाती है। दिया जाना।

इस्लाम धर्म में हलाल जानवर की कुर्बानी देकर बकरीद को मनाया जाता है, यह त्यौहार जानवरों की कुर्बानी के कारण हमेशा लोगों की चर्चा का विषय बना रहता है। बकरीद में हलाल जानवर की कुर्बानी देने का बहुत महत्व है। लेकिन ऐसा क्यों किया जाता है? खुशियों के त्यौहार में किसी बेज़ुबान हलाल जानवर की कुर्बानी देने का क्या अर्थ है? दरअसल इसके पीछे एक कहानी और उससे जुड़ी मान्यता छिपी है।

*क्यों देते हैं कुर्बानी?*
इस कहानी के अनुसार एक बार पैगम्बर इब्राहीम अलैय सलाम के सपने में अल्लाह का हुक्म हुआ कि, वे अपनी सबसे प्यारी चीज़ को अल्लाह की राह पर कुर्बान कर दे, उनको सबसे प्यारा अपना बेटा इस्माइल था। यह इब्राहीम अलैय सलाम के लिए एक इम्तिहान था, जिसमें एक तरफ थी अपने बेटे की मुहब्बत और एक तरफ था अल्लाह का हुक्म। लेकिन अल्लाह का हुक्म को ठुकराना, अल्लाह की तौहीन करने के समान था, जो इब्राहीम अलैय सलाम को कभी भी कुबूल न था। इसलिए उन्होंने सिर्फ अल्लाह के हुक्म को पूरा करने का निर्णय लिया और अपने बेटे की कुर्बानी देने को तैयार हो गए। लेकिन अल्लाह भी रहीमो करीम है और वह अपने बंदे के दिल के हाल को बाखूबी जानता है। उसने स्वयं ऐसा रास्ता खोज निकाला था जिससे उसके बंदे को दर्द न हो। जैसे ही इब्राहीम अलैय सलाम छुरी लेकर अपने बेटे को कुर्बान करने लगे, वैसे ही फरिश्तों ने तेजी से इस्माईल को छुरी के नीचे से उनके बेटे को हटाकर उनकी जगह एक दुम्बा (भेड़) रख दिया।
इस तरह पैगम्बर इब्राहीम अलैय सलाम के हाथों दुम्बा के जिबह होने के साथ पहली कुर्बानी हुई। इसके बाद फरिश्तों ने इब्राहीम अलैय सलाम को खुशखबरी सुनाई कि अल्लाह ने आपकी कुर्बानी कुबूल कर ली है और अल्लाह आपकी कुर्बानी से राजी है।

*इसलिए करते हैं कुर्बानी*
इसलिए तभी से इस त्यौहार पर अल्लाह के नाम पर एक हलाल जानवर की कुर्बानी दी जाती है। लेकिन ना केवल इस कहानी के आधार पर, वरन् ऐसी कई मान्यताएं हैं जो एक हलाल जानवर को कुर्बानी देने के लिए उत्सुक करती हैं।

*कुर्बानी का सही अर्थ*
दरअसल इस्लाम, क़ौम से जीवन के हर क्षेत्र में कुर्बानी मांगता है। इस्लाम के प्रसार में धन व जीवन की कुर्बानी, नरम बिस्तर छोड़कर कड़कड़ाती ठंड या जबर्दस्त गर्मी में बेसहारा लोगों की सेवा के लिए जान की कुर्बानी भी खास मायने रखती है।

*हर एक मुस्लिम का धर्म है कुर्बानी*
कुर्बानी का असली मतलब यहां ऐसे बलिदान से है जो दूसरों के लिए दिया गया हो। परन्तु इस त्यौहार के दिन जानवरों की कुर्बानी महज एक प्रतीक मात्र है। असल में कुर्बानी हर एक मुस्लिम को अल्लाह के लिए जीवन भर करनी होती है।
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Sunday, 27 May 2018

तुम इक गोरख धन्दा हो!! #AdvAnshuman

Naz Khialvi (1947-2010, real name: Muhammad Siddique) was a Pakistani poet and radio broadcaster from near the city of Faisalabad, most famous for his poem “Tum Ik Gorakh Dhanda Ho”. This philosophically and spiritually rich text explores the paradoxes of religion like the prevalence of evil and injustice, selective divine intervention, and other indecipherable aspects of God. The poem also points toward the unity of human religious experiences. At the end, after listing his grievances, the bewildered poet ultimately accepts divine incomprehensibility.

कभी यहाँ तुम्हें ढूँढा, कभी वहाँ पहुँचा
तुम्हारी दीद की ख़ातिर कहाँ-कहाँ पहुँचा
ग़रीब मिट गए, पामाल हो गए लेकिन
किसी तलक न तेरा आज तक निशां पहुँचा

हो भी नहीं और, हर जा हो
हो भी नहीं और, हर जा हो
तुम इक गोरख धन्दा हो!

हर ज़र्रे में किस शान से तू जल्वा-नुमा है
हैरां है मगर अक़्ल के कैसा है तू, क्या है?
तुम इक गोरख धन्दा हो!

तुझे दैर-ओ-हरम में मैंने ढूँढा तू नहीं मिलता
मगर तशरीग-फ़र्मा तुझे अपने दिल में देखा है!
तुम इक गोरख धन्दा हो!

ढूँढे नहीं मिले हो, न ढूँढे से कहीं तुम
और फिर ये तमाशा है जहाँ हम हैं वहीं तुम!
तुम इक गोरख धन्दा हो!

जब बजुज़ तेरे कोई दूसरा मौजूद नहीं
फिर समझ में नहीं आता तेरा पर्दा करना!
तुम इक गोरख धन्दा हो!

जो उल्फ़त में तुम्हारी खो गया है
उसी खोए हुए को कुछ मिला है
नहीं है तू तो फिर इनकार कैसा?
नफ़ी भी तेरे होने का पता है

मैं जिसको कह रहा हूँ अपनी हस्ती
अगर वो तू नहीं तो और क्या है?
नहीं आया खयालों में अगर तू
तो फिर मैं कैसे समझा तू खुदा है?
तुम इक गोरख धन्दा हो!

हैरां हूँ इस बात पे तुम कौन हो क्या हो?
हाथ आओ तो बुत, हाथ न आओ तो ख़ुदा हो!
तुम इक गोरख धन्दा हो!

अक़्ल में जो घिर गया ल-इन्तहा क्योंकर हुआ?
जो समझ में आ गया फिर वो ख़ुदा क्योंकर हुआ?
तुम इक गोरख धन्दा हो!

छुपते नहीं हो सामने आते नहीं हो तुम
जल्वा दिखाके जल्वा दिखाते नहीं हो तुम

दैर-ओ-हरम के झगड़े मिटाते नहीं हो तुम
जो अस्ल बात है वो बताते नहीं हो तुम
हैरां हूँ मेरे दिल में समाए हो किस तरह?
हालांके दो जहाँ में समाते नहीं हो तुम!

ये माबाद-ओ-हरम, ये कलीसा, वो दैर क्यों?
हर्जाई हो तभी तो बताते नहीं हो तुम!
तुम इक गोरख धन्दा हो!

दिल पे हैरत ने अजब रँग जमा रखा है!
एक उलझी हुई तसवीर बना रखा है!
कुछ समझ में नहीं आता के ये चक्कर क्या है?
खेल क्या तुमने अज़ल से ये रचा रखा है!

रूह को जिस्म के पिंजरे का बनाकर कैदी
उसपे फिर मौत का पहरा भी बिठा रखा है!
ये बुराई, वो भलाई, ये जहन्नुम, वो बहिश्त
इस उलट-फेर में फ़र्माओ तो क्या रखा है?
अपनी पहचान की खातिर है बनाया सबको
सबकी नज़रों से मगर खुद को छुपा रखा है!
तुम इक गोरख धन्दा हो!

राह-ए-तहक़ीक़ में हर ग़ाम पे उलझन देखूँ
वही हालात-ओ-खयालात में अनबन देखूँ

बनके रह जाता हूँ तसवीर परेशानी की
ग़ौर से जब भी कभी दुनिया का दर्पन देखूँ
एक ही ख़ाक़ पे फ़ित्रत के तजादात इतने!
इतने हिस्सों में बँटा एक ही आँगन देखूँ!

कहीं ज़हमत की सुलग़ती हुई पत्झड़ का समा
कहीं रहमत के बरसते हुए सावन देखूँ

कहीं फुँकारते दरिया, कहीं खामोश पहाड़!
कहीं जंगल, कहीं सहरा, कहीं गुलशन देखूँ
ख़ून रुलाता है ये तक़्सीम का अन्दाज़ मुझे
कोई धनवान यहाँ पर कोई निर्धन देखूँ

दिन के हाथों में फ़क़त एक सुलग़ता सूरज
रात की माँग सितारों से मुज़ईय्यन देखूँ

कहीं मुरझाए हुए फूल हैं सच्चाई के
और कहीं झूठ के काँटों पे भी जोबन देखूँ!

रात क्या शय है, सवेरा क्या है?
ये उजाला, ये अंधेरा क्या है?

मैं भी नायिब हूँ तुम्हारा आख़िर
क्यों ये कहते हो के "तेरा क्या है?"
तुम इक गोरख धन्दा हो!

जो कहता हूँ माना तुम्हें लगता है बुरा सा
फिर भी है मुझे तुमसे बहर-हाल ग़िला सा
हर ज़ुल्म की तौफ़ीक़ है ज़ालिम की विरासत
मज़लूम के हिस्से में तसल्ली न दिलासा

कल ताज सजा देखा था जिस शक़्स के सर पर
है आज उसी शक़्स के हाथों में ही कासा!
यह क्या है अगर पूछूँ तो कहते हो जवाबन
इस राज़ से हो सकता नहीं कोई शनासा!

तुम इक गोरख धन्दा हो!!

Saturday, 26 May 2018

काले चुनाव की जंजीर :: विमल राजस्थानी

जब तक इस काले चुनाव की टूटेगी जंजीर नहीं

तक तक पायल मौन रहेगी, कूकेगी मंजीर नहीं
यह चुनाव की बाढ़ भयंकर
बहे आ रहे पत्थर-कंकर
भोली जनता, मजबूरी में
पूजे-माने जिनको शंकर
ये शिव-शंकर नाग-नाथ हैं
ये बम भोले साँप-नाथ हैं
इनके दायें-बाँये-आगे-पीछे
विषधर नाग साथ हैं
इन्हें झुमातीं, इन्हें लुभातीं, आधुनिकाएँ सुर-बालाएँ
पल भर को भी इन्हें रूलाती दीन-दुखी की पीर नहीं
लोकतंत्र तो कफन ओढ़कर
कब का सोया पड़ा चिता पर
इसे चाहिए और कुछ नहीं
सफल क्रांति की चिनगारी भर

जब तक दीन दयालु सुधी जन 
जाते नहीं सुभाष चन्द्र बन
तब तक चक्के जाम रहेंगे
सदा विधाता वाम रहेंगे
सदा विधाता वाम रहेंगे
इस शोषण का अंत न होगा, पतझर छोड़ वसन्त न होगा
जब तक कवि की लौह लेखनी बन जाती शमशीर नहीं
योग्य व्यक्ति झख मारेंगे ही
नेता सब रस गारेंगे ही
त्राहिमाम की मुद्रा में हम
प्रभु को कलप पुकारेंगे ही
दल दलदल-सा लीलेंगे ही
ओझा हमको कीलेंगे ही
जीने को तो उठते-गिरते
जीते हैं हम, जी लेंगे ही
लेकिन जब तक ये चुनाव हैं, छल-छद्मी हैं पेंच दाँव हैं
तब तक कोटि-कोटि इन आँखों का सूखेगा नीर नहीं
यह विधान तो सड़ा-गला है
इससे किसका हुआ भला है ?
गोरे गये, आ गये काले
लेकर बर्छी-बल्लम-भाले
न्याय नहीं, अन्याय हो रहा
सुबक-सुबक कर सत्य रो रहा
चारों ओर पतन फैला है
जननी का आँचल मैला है
सिर धुन-धुन रोती है माता
इतने क्रूर न बनो विधाता
परिर्वतन की आँधी आये, रामराज्य का ध्वज फहराये
मन तो कब के मरे, टिकेंगे अब ये शीर्ण शरीर नहीं

Friday, 23 February 2018

India Shining Vs. 2019

दूध का जला छाछ भी फूंक-फूंक के पीता है, इसी प्रकार India Shining से जले 2019 में विकास को फूंक-फूंक कर पीने के मूड में दिख रहे हैं।

आतंकवाद का कोई धर्म नहीं होता??

क्या 1948 में गांधी जी आतंकवादी हमले में मारे गये थे...??? जैसे 1984 में इंदिरा को सिख आतंकवादीयों ने और 1991 में राजीव को तमिल आतंकवादी ने मारा था।
आतंकवाद का कोई धर्म नहीं होता??
#AdvAnshuman

लीडर:-

जो आंसू बहाते थे गीदड़ की तरह,
आज वो ज्ञान बांट रहे हैं लीडर की तरह,
भ्रम में जीने की खुशफहमी तब भी थी,
घमंड में जीने की गलतफहमी आज भी है,
खडे़ थे कल कटोरा लिए सड़क पर तुम,
खडे़ हो आज भी कटोरा लिए सदन में तुम!
#AdvAnshuman

विवेकानंद प्रवास स्थल - गोपाल विला, अर्दली बाजार, वाराणसी :: बने राष्ट्रीय स्मारक।

स्वामी विवेकानंद का वाराणसी से गहरा संबंध था। उन्होंने वाराणसी में कई बार प्रवास किया, जिनमें 1888 में पहली बार आगमन और 1902 में अंतिम प्रवा...