Sunday, 12 August 2018

गहरा इतिहास छिपा है ‘’ईदुज़ज़ूहा" (बकरीद) एवं कुर्बानी के पीछे:-

इस्लाम धर्म का खास त्यौहार ‘’ईदुज़ज़ूहा" दुनिया भर में मनाया जाता है। इसे बकरीद के नाम से भी जाना जाता है, क्योंकि इस दिन धार्मिक मर्यादाओं के अनुसार बकरे की कुर्बानी दी जाती है। वर्ष भर में इस्लाम धर्म में दो ऐसे त्यौहार आते हैं, जो सभी में हर्षोल्लास भर देते हैं।

*ईदुज़ज़ूहा (बकरीद) का महत्व*
ईदुज़ज़ूहा यह नाम अधिकतर अरबी देशों में ही लिया जाता है, लेकिन भारतीय उप महाद्वीप में इस त्यौहार को बकरीद कहा जाता है, इसका कारण है इस दिन हलाल जानवर की कुर्बानी दी जाती है। दिया जाना।

इस्लाम धर्म में हलाल जानवर की कुर्बानी देकर बकरीद को मनाया जाता है, यह त्यौहार जानवरों की कुर्बानी के कारण हमेशा लोगों की चर्चा का विषय बना रहता है। बकरीद में हलाल जानवर की कुर्बानी देने का बहुत महत्व है। लेकिन ऐसा क्यों किया जाता है? खुशियों के त्यौहार में किसी बेज़ुबान हलाल जानवर की कुर्बानी देने का क्या अर्थ है? दरअसल इसके पीछे एक कहानी और उससे जुड़ी मान्यता छिपी है।

*क्यों देते हैं कुर्बानी?*
इस कहानी के अनुसार एक बार पैगम्बर इब्राहीम अलैय सलाम के सपने में अल्लाह का हुक्म हुआ कि, वे अपनी सबसे प्यारी चीज़ को अल्लाह की राह पर कुर्बान कर दे, उनको सबसे प्यारा अपना बेटा इस्माइल था। यह इब्राहीम अलैय सलाम के लिए एक इम्तिहान था, जिसमें एक तरफ थी अपने बेटे की मुहब्बत और एक तरफ था अल्लाह का हुक्म। लेकिन अल्लाह का हुक्म को ठुकराना, अल्लाह की तौहीन करने के समान था, जो इब्राहीम अलैय सलाम को कभी भी कुबूल न था। इसलिए उन्होंने सिर्फ अल्लाह के हुक्म को पूरा करने का निर्णय लिया और अपने बेटे की कुर्बानी देने को तैयार हो गए। लेकिन अल्लाह भी रहीमो करीम है और वह अपने बंदे के दिल के हाल को बाखूबी जानता है। उसने स्वयं ऐसा रास्ता खोज निकाला था जिससे उसके बंदे को दर्द न हो। जैसे ही इब्राहीम अलैय सलाम छुरी लेकर अपने बेटे को कुर्बान करने लगे, वैसे ही फरिश्तों ने तेजी से इस्माईल को छुरी के नीचे से उनके बेटे को हटाकर उनकी जगह एक दुम्बा (भेड़) रख दिया।
इस तरह पैगम्बर इब्राहीम अलैय सलाम के हाथों दुम्बा के जिबह होने के साथ पहली कुर्बानी हुई। इसके बाद फरिश्तों ने इब्राहीम अलैय सलाम को खुशखबरी सुनाई कि अल्लाह ने आपकी कुर्बानी कुबूल कर ली है और अल्लाह आपकी कुर्बानी से राजी है।

*इसलिए करते हैं कुर्बानी*
इसलिए तभी से इस त्यौहार पर अल्लाह के नाम पर एक हलाल जानवर की कुर्बानी दी जाती है। लेकिन ना केवल इस कहानी के आधार पर, वरन् ऐसी कई मान्यताएं हैं जो एक हलाल जानवर को कुर्बानी देने के लिए उत्सुक करती हैं।

*कुर्बानी का सही अर्थ*
दरअसल इस्लाम, क़ौम से जीवन के हर क्षेत्र में कुर्बानी मांगता है। इस्लाम के प्रसार में धन व जीवन की कुर्बानी, नरम बिस्तर छोड़कर कड़कड़ाती ठंड या जबर्दस्त गर्मी में बेसहारा लोगों की सेवा के लिए जान की कुर्बानी भी खास मायने रखती है।

*हर एक मुस्लिम का धर्म है कुर्बानी*
कुर्बानी का असली मतलब यहां ऐसे बलिदान से है जो दूसरों के लिए दिया गया हो। परन्तु इस त्यौहार के दिन जानवरों की कुर्बानी महज एक प्रतीक मात्र है। असल में कुर्बानी हर एक मुस्लिम को अल्लाह के लिए जीवन भर करनी होती है।
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Sunday, 27 May 2018

तुम इक गोरख धन्दा हो!! #AdvAnshuman

Naz Khialvi (1947-2010, real name: Muhammad Siddique) was a Pakistani poet and radio broadcaster from near the city of Faisalabad, most famous for his poem “Tum Ik Gorakh Dhanda Ho”. This philosophically and spiritually rich text explores the paradoxes of religion like the prevalence of evil and injustice, selective divine intervention, and other indecipherable aspects of God. The poem also points toward the unity of human religious experiences. At the end, after listing his grievances, the bewildered poet ultimately accepts divine incomprehensibility.

कभी यहाँ तुम्हें ढूँढा, कभी वहाँ पहुँचा
तुम्हारी दीद की ख़ातिर कहाँ-कहाँ पहुँचा
ग़रीब मिट गए, पामाल हो गए लेकिन
किसी तलक न तेरा आज तक निशां पहुँचा

हो भी नहीं और, हर जा हो
हो भी नहीं और, हर जा हो
तुम इक गोरख धन्दा हो!

हर ज़र्रे में किस शान से तू जल्वा-नुमा है
हैरां है मगर अक़्ल के कैसा है तू, क्या है?
तुम इक गोरख धन्दा हो!

तुझे दैर-ओ-हरम में मैंने ढूँढा तू नहीं मिलता
मगर तशरीग-फ़र्मा तुझे अपने दिल में देखा है!
तुम इक गोरख धन्दा हो!

ढूँढे नहीं मिले हो, न ढूँढे से कहीं तुम
और फिर ये तमाशा है जहाँ हम हैं वहीं तुम!
तुम इक गोरख धन्दा हो!

जब बजुज़ तेरे कोई दूसरा मौजूद नहीं
फिर समझ में नहीं आता तेरा पर्दा करना!
तुम इक गोरख धन्दा हो!

जो उल्फ़त में तुम्हारी खो गया है
उसी खोए हुए को कुछ मिला है
नहीं है तू तो फिर इनकार कैसा?
नफ़ी भी तेरे होने का पता है

मैं जिसको कह रहा हूँ अपनी हस्ती
अगर वो तू नहीं तो और क्या है?
नहीं आया खयालों में अगर तू
तो फिर मैं कैसे समझा तू खुदा है?
तुम इक गोरख धन्दा हो!

हैरां हूँ इस बात पे तुम कौन हो क्या हो?
हाथ आओ तो बुत, हाथ न आओ तो ख़ुदा हो!
तुम इक गोरख धन्दा हो!

अक़्ल में जो घिर गया ल-इन्तहा क्योंकर हुआ?
जो समझ में आ गया फिर वो ख़ुदा क्योंकर हुआ?
तुम इक गोरख धन्दा हो!

छुपते नहीं हो सामने आते नहीं हो तुम
जल्वा दिखाके जल्वा दिखाते नहीं हो तुम

दैर-ओ-हरम के झगड़े मिटाते नहीं हो तुम
जो अस्ल बात है वो बताते नहीं हो तुम
हैरां हूँ मेरे दिल में समाए हो किस तरह?
हालांके दो जहाँ में समाते नहीं हो तुम!

ये माबाद-ओ-हरम, ये कलीसा, वो दैर क्यों?
हर्जाई हो तभी तो बताते नहीं हो तुम!
तुम इक गोरख धन्दा हो!

दिल पे हैरत ने अजब रँग जमा रखा है!
एक उलझी हुई तसवीर बना रखा है!
कुछ समझ में नहीं आता के ये चक्कर क्या है?
खेल क्या तुमने अज़ल से ये रचा रखा है!

रूह को जिस्म के पिंजरे का बनाकर कैदी
उसपे फिर मौत का पहरा भी बिठा रखा है!
ये बुराई, वो भलाई, ये जहन्नुम, वो बहिश्त
इस उलट-फेर में फ़र्माओ तो क्या रखा है?
अपनी पहचान की खातिर है बनाया सबको
सबकी नज़रों से मगर खुद को छुपा रखा है!
तुम इक गोरख धन्दा हो!

राह-ए-तहक़ीक़ में हर ग़ाम पे उलझन देखूँ
वही हालात-ओ-खयालात में अनबन देखूँ

बनके रह जाता हूँ तसवीर परेशानी की
ग़ौर से जब भी कभी दुनिया का दर्पन देखूँ
एक ही ख़ाक़ पे फ़ित्रत के तजादात इतने!
इतने हिस्सों में बँटा एक ही आँगन देखूँ!

कहीं ज़हमत की सुलग़ती हुई पत्झड़ का समा
कहीं रहमत के बरसते हुए सावन देखूँ

कहीं फुँकारते दरिया, कहीं खामोश पहाड़!
कहीं जंगल, कहीं सहरा, कहीं गुलशन देखूँ
ख़ून रुलाता है ये तक़्सीम का अन्दाज़ मुझे
कोई धनवान यहाँ पर कोई निर्धन देखूँ

दिन के हाथों में फ़क़त एक सुलग़ता सूरज
रात की माँग सितारों से मुज़ईय्यन देखूँ

कहीं मुरझाए हुए फूल हैं सच्चाई के
और कहीं झूठ के काँटों पे भी जोबन देखूँ!

रात क्या शय है, सवेरा क्या है?
ये उजाला, ये अंधेरा क्या है?

मैं भी नायिब हूँ तुम्हारा आख़िर
क्यों ये कहते हो के "तेरा क्या है?"
तुम इक गोरख धन्दा हो!

जो कहता हूँ माना तुम्हें लगता है बुरा सा
फिर भी है मुझे तुमसे बहर-हाल ग़िला सा
हर ज़ुल्म की तौफ़ीक़ है ज़ालिम की विरासत
मज़लूम के हिस्से में तसल्ली न दिलासा

कल ताज सजा देखा था जिस शक़्स के सर पर
है आज उसी शक़्स के हाथों में ही कासा!
यह क्या है अगर पूछूँ तो कहते हो जवाबन
इस राज़ से हो सकता नहीं कोई शनासा!

तुम इक गोरख धन्दा हो!!

Saturday, 26 May 2018

काले चुनाव की जंजीर :: विमल राजस्थानी

जब तक इस काले चुनाव की टूटेगी जंजीर नहीं

तक तक पायल मौन रहेगी, कूकेगी मंजीर नहीं
यह चुनाव की बाढ़ भयंकर
बहे आ रहे पत्थर-कंकर
भोली जनता, मजबूरी में
पूजे-माने जिनको शंकर
ये शिव-शंकर नाग-नाथ हैं
ये बम भोले साँप-नाथ हैं
इनके दायें-बाँये-आगे-पीछे
विषधर नाग साथ हैं
इन्हें झुमातीं, इन्हें लुभातीं, आधुनिकाएँ सुर-बालाएँ
पल भर को भी इन्हें रूलाती दीन-दुखी की पीर नहीं
लोकतंत्र तो कफन ओढ़कर
कब का सोया पड़ा चिता पर
इसे चाहिए और कुछ नहीं
सफल क्रांति की चिनगारी भर

जब तक दीन दयालु सुधी जन 
जाते नहीं सुभाष चन्द्र बन
तब तक चक्के जाम रहेंगे
सदा विधाता वाम रहेंगे
सदा विधाता वाम रहेंगे
इस शोषण का अंत न होगा, पतझर छोड़ वसन्त न होगा
जब तक कवि की लौह लेखनी बन जाती शमशीर नहीं
योग्य व्यक्ति झख मारेंगे ही
नेता सब रस गारेंगे ही
त्राहिमाम की मुद्रा में हम
प्रभु को कलप पुकारेंगे ही
दल दलदल-सा लीलेंगे ही
ओझा हमको कीलेंगे ही
जीने को तो उठते-गिरते
जीते हैं हम, जी लेंगे ही
लेकिन जब तक ये चुनाव हैं, छल-छद्मी हैं पेंच दाँव हैं
तब तक कोटि-कोटि इन आँखों का सूखेगा नीर नहीं
यह विधान तो सड़ा-गला है
इससे किसका हुआ भला है ?
गोरे गये, आ गये काले
लेकर बर्छी-बल्लम-भाले
न्याय नहीं, अन्याय हो रहा
सुबक-सुबक कर सत्य रो रहा
चारों ओर पतन फैला है
जननी का आँचल मैला है
सिर धुन-धुन रोती है माता
इतने क्रूर न बनो विधाता
परिर्वतन की आँधी आये, रामराज्य का ध्वज फहराये
मन तो कब के मरे, टिकेंगे अब ये शीर्ण शरीर नहीं

Friday, 23 February 2018

India Shining Vs. 2019

दूध का जला छाछ भी फूंक-फूंक के पीता है, इसी प्रकार India Shining से जले 2019 में विकास को फूंक-फूंक कर पीने के मूड में दिख रहे हैं।

आतंकवाद का कोई धर्म नहीं होता??

क्या 1948 में गांधी जी आतंकवादी हमले में मारे गये थे...??? जैसे 1984 में इंदिरा को सिख आतंकवादीयों ने और 1991 में राजीव को तमिल आतंकवादी ने मारा था।
आतंकवाद का कोई धर्म नहीं होता??
#AdvAnshuman

लीडर:-

जो आंसू बहाते थे गीदड़ की तरह,
आज वो ज्ञान बांट रहे हैं लीडर की तरह,
भ्रम में जीने की खुशफहमी तब भी थी,
घमंड में जीने की गलतफहमी आज भी है,
खडे़ थे कल कटोरा लिए सड़क पर तुम,
खडे़ हो आज भी कटोरा लिए सदन में तुम!
#AdvAnshuman

Tuesday, 7 November 2017

चर्चा विराम का नुस्खा : अधजल गगरी छलकत जाय

लेखक कुलवंत हैप्पी

यह कहावत तब बहुत काम लगती है, जब खुद को ज्ञानी और दूसरे को मूर्ख साबित करना चाहते हों। अगर आप चर्चा करते हुए थक जाएं तो इस कहावत को बोलकर चर्चा समाप्त भी कर सकते हैं मेरी मकान मालकिन की तरह। जी हाँ, मेरी जब जब भी मेरी मकान मालकिन के साथ किसी मुद्दे पर चर्चा होती है तो वे अक्सर इस कहावत को बोलकर चर्चा को विराम दे देती है। इसलिए अक्सर मैं भी चर्चा से बचता हूँ, खासकर उसके साथ तो चर्चा करने से, क्योंकि वो चर्चा को बहस बना देती है, और आखिर में उक्त कहावत का इस्तेमाल कर चर्चा को समाप्त करने पर मजबूर कर देती है। मुझे लगता है कि चर्चा और बहस में उतना ही फर्क है, जितना जल और पानी में या फिर आईस और स्नो में।

कभी किसी ने सोचा है कि सामने वाला अधजल गगरी है, हम कैसे फैसला कर सकते हैं? क्या पता हम ही अधजल गगरी हों? मुझे तो अधजल गगरी में भी कोई बुराई नजर नहीं आती। कुछ लोगों की फिदरत होती है, हमेशा सिक्के के एक पहलू को देखने की। कभी किसी ने विचार किया है कि अधजल गगरी छलकती है तो सारा दोष उसका नहीं होता, कुछ दोष तो हमारे चलने में भी होगा। मुझे याद है, जब खेतों में पानी वाला घड़ा उठाते थे, तो वहाँ भरा हुआ भी छलकता था, और अध भरा  भी छलकता था, क्योंकि खेतों में जमीं समतल नहीं होती, जब जमीं समतल नहीं होगी, तो हमारे पाँव भी सही से जमीं पर नहीं टिक पाएंगे।

अधजल गगरी से याद आया, हमारे गाँव में लाजो-ताजो नामक दो बहनें रहती थी, वो पानी भरने के लिए गाँव से बाहर कुएं पर जाती थी, दूसरी महिलाओं की तरह। तब तो गाँव के रास्ते भी कच्चे थे, स्वाभिक था ऐसे में पाँव पर मिट्टी का पाऊडर लगना। ताजो का घड़ा बिल्कुल नया था, जबकि लाजो के घड़े के ऊपर वाले हिस्से में छोटा सा सुराख था, इसलिए वो हमेशा अपने घड़े को अधभरा रखती। जब वो घड़ा लेकर चलती तो पानी घड़े के भीतर छलकता, ऐसे में कुछ पानी जमीं पर गिर जाता और कुछ उसके जिस्म पर, जो उसके जिस्म को ठंड पहुंचाता। ताजो का घड़ा, लाजो के सुराख वाले घड़े को देखकर अक्सर सोचता, एक तो मुझसे आधा पानी लाता है, ऊपर से लाजो को भिगोता है, फिर भी मुझसे ज्यादा लाजो इसकी तरफ ज्यादा ध्यान देती है। कुछ समय बाद सुराख वाला घड़ा टूट गया, उसके टूटने पर लाजो को वैसा ही सदमा पहुंचा, जैसा किसी अपने के चले जाने पर पहुंचता है। रोती हुई लाजो को दूसरे घड़े ने सवाल किया कि तुम इसके लिए क्यों रो रही हो, ये घड़ा तो अक्सर तुम्हें भिगोता था, और पानी भी मुझसे आधा लाता था। तो लाजो ने कहा, "तुम्हें याद है, जब तुम हमारे घर नए नए आए थे"। घड़ा बोला," हाँ, मुझे याद है"। लाजो ने कहा, "तुमने देखा था तब उस रास्ते को जहाँ से हम रोज गुजरते हैं'। घड़ा ने कहा, 'हाँ', तब वो बिल्कुल घास रहित था"। घास रहित शब्द सुनते ही लाजो ने कहा, "अगर उस रास्ते पर घास उग आई है, तो सिर्फ और सिर्फ इस सुराख वाले घड़े के कारण, अगर ये घड़ा छलकता न, तो कभी भी उस रास्ते पर आज सी हरियाली न आती"। इतना सुनते ही दूसरा घड़ा चुप हो गया।

जरूरी नहीं कि श्री गुरू ग्रंथ साहिब, बाईबल, गीता और कुरान का तोता रटन करने वाला ज्ञानी हो, ऐसा भी तो हो सकता है कि कोई व्यक्ति इन सब धार्मिक ग्रंथों की अच्छी अच्छी बातें ग्रहण कर, अच्छी तरह से अपने जीवन में उतार ले। इस मतलब यह तो न होगा कि सामने वाले के पास अल्प ज्ञान है, सिर्फ इस आधार पर कि उसको पूरे ग्रंथ याद नहीं। मुझे लगता है, जितना उसके पास है, वो उसके लिए काफी है, क्योंकि वो तोता रटन करने की बजाय, उसको समझकर जीवन में उतरा रहा है, जो लोग तोता रटन पर जोर देते हैं, वो धार्मिक होकर भी ताजो के भरे हुए घड़े की तरह किसी दूसरे का फायदा नहीं कर सकते, और ताजो की घड़े की तरह अधजल वाले लाजो के घड़े से ईष्या करते रहते हैं। ग्रंथों में ईष्या को त्यागने के बारे में सिखाया गया है, लेकिन तोता रटन करने वाला क्या जाने इस ज्ञान को।

विवेकानंद प्रवास स्थल - गोपाल विला, अर्दली बाजार, वाराणसी :: बने राष्ट्रीय स्मारक।

स्वामी विवेकानंद का वाराणसी से गहरा संबंध था। उन्होंने वाराणसी में कई बार प्रवास किया, जिनमें 1888 में पहली बार आगमन और 1902 में अंतिम प्रवा...