Sunday, 28 September 2014

भारत में बाल यौन शोषण कानून :-

भारत में बाल यौन शोषण कानून को बाल संरक्षण नीतियों के भाग के रूप में अधिनियमित किया गया है। भारत की संसद ने 22 मई 2012 को "लैंगिक अपराध से बालकों का संरक्षक अधिनियम, 2011" (Protection of Children Against Sexual Offences Bill, 2011) पारित कर दिया, जिसे लैंगिक हमला, लैंगिक उत्पीड़न और अश्लील साहित्य के अपराध से बालकों का संरक्षण करने और ऐसे अपराधों का विचारण करन के लिए विशेष न्यायालयों की स्थापना तथा उनसे सम्बंधित या आनुषंगिक विषयों के लिए उपबंध करने के लिए अधिनियम बनाया गया है । कानून के अनुसार सरकार द्वारा तैयार नियम भी 14 नवंबर, 2012 को अधिसूचित किया गया है और कानून लागू करने के लिए तैयार हो गया है। भारत के 53 प्रतिशत बच्चे यौन शोषण का किसी ना किसी रूप में सामना करते हैं। इन हालत में कड़े कानून की जरूरत काफी समय से महसूस की जा रही थी। 
यौन अपराधों के कानून से बच्चों का संरक्षण: -  
नए कानून के तहत बाल अपराधों की कई किस्म प्रदान की गयी है जिसके माध्यम से आरोपी को हर हाल में दंडित किया जा सकता है। नए कानून के माध्यम से बाल अपराधों को विस्तारित किया गया है अब यौन उत्पीड़न ही नही बल्कि बच्चों के खिलाफ बेशर्मी द्वारा किये सभी कृत्य हर हाल में अपराध माना जायेगा। इस क़ानून में अश्लील साहित्य या अश्लील सामग्री का संग्रह कर अथवा संग्रह में बच्चों को किसी भी रूप में शामिल करना अथवा अश्लील साहित्य या अश्लील सामग्री देखना भी अपराध माना गया है। परन्तु अभी भी कानूनी प्रक्रिया और परीक्षण थकाऊ प्रक्रिया है और यह प्रक्रिया बाल यौन शोषण से ग्रसित बच्चे को समय पूर्व ही एक वयस्क बना देती है। बच्चों के विरुद्ध हो रहे अपराध में अभी और सुधारों की आवशयकता है। 
कानून 2012 विधान से पहले पारित किया गया था : - 
बाल यौन शोषण भारतीय दंड संहिता की निम्नलिखित धाराओं के तहत मुकदमा चलाया गया था :-
  • I.P.C. (1860 ) 375- बलात्कार 
  • I.P.C. (1860 ) 354- महिला का लज्जा भंग करना
  • I.P.C. (1860 ) 377- अप्राकृतिक अपराध
  • I.P.C. (1860 ) 511- प्रयास 
भारतीय दंड संहिता में विभिन्न खामियों के कारण बच्चो की रक्षा अपराधिक कृत्यों से प्रभावी ढंग से नहीं हो पा रही थी। 
  • आईपीसी 375 में योनि संभोग के अलावा अन्य प्रवेश के यौन कृत्यों से पुरुष पीड़ितों या किसी अन्य की भी रक्षा नहीं करता। 
  • आईपीसी 354 में 'लज्जा' की परिभाषा का अभाव है। कमजोर जुर्माना किया जाता है। यह नर बच्चे की 'लज्जा' की रक्षा नहीं करता।
  • आईपीसी 377 में  शब्द 'अप्राकृतिक अपराधों' परिभाषित नहीं है। यह केवल उनके हमलावर सेक्स कार्य से प्रवेश पर लागू होता है। बच्चों के यौन शोषण का अपराधीकरण नहीं बनाया गया है।

साइबर क्राइम करना भारी पड़ेगा :-

कंप्यूटर, इंटरनेट, डिजिटल डिवाइसेज, वर्ल्ड वाइड वेब आदि के जरिए किए जाने वाले अपराधों के लिए छोटे-मोटे जुर्माने से लेकर उम्र कैद तक की सजा दी जा सकती है। दुनिया भर में सुरक्षा और जांच एजेंसियां साइबर अपराधों को बहुत गंभीरता से ले रही हैं। ऐसे मामलों में सूचना तकनीक कानून 2000 और सूचना तकनीक (संशोधन) कानून 2008 तो लागू होते ही हैं, मामले के दूसरे पहलुओं को ध्यान में रखते हुए भारतीय दंड संहिता (आईपीसी), कॉपीराइट कानून 1957, कंपनी कानून, सरकारी गोपनीयता कानून और यहां तक कि बिरले मामलों में आतंकवाद निरोधक कानून भी लागू किए जा सकते हैं। कुछ मामलों पर भारत सरकार के आईटी डिपार्टमेंट की तरफ से अलग से जारी किए गए आईटी नियम 2011 भी लागू होते हैं। कानून में निर्दोष लोगों को साजिशन की गई शिकायतों से सुरक्षित रखने की भी मुनासिब व्यवस्था है, लेकिन कंप्यूटर, दूरसंचार और इंटरनेट यूजर को हमेशा सतर्क रहना चाहिए कि उनसे जाने-अनजाने में कोई साइबर क्राइम तो नहीं हो रहा है। तकनीकी जरियों का सुरक्षित इस्तेमाल करने के लिए हमेशा याद रखें कि इलाज से परहेज बेहतर है।
साइबर क्राइम, कानून और सज़ा :-

हैकिंग:-
हैकिंग का मतलब है किसी कंप्यूटर, डिवाइस, इंफॉर्मेशन सिस्टम या नेटवर्क में अनधिकृत रूप से घुसपैठ करना और डेटा से छेड़छाड़ करना। यह हैकिंग उस सिस्टम की फिजिकल एक्सेस के जरिए भी हो सकती है और रिमोट एक्सेस के जरिए भी। जरूरी नहीं कि ऐसी हैकिंग के नतीजे में उस सिस्टम को नुकसान पहुंचा ही हो। अगर कोई नुकसान नहीं भी हुआ है, तो भी घुसपैठ करना साइबर क्राइम के तहत आता है, जिसके लिए सजा का प्रावधान है।
कानून :-
- आईटी (संशोधन) एक्ट 2008 की धारा 43 (ए), धारा 66
- आईपीसी की धारा 379 और 406 के तहत कार्रवाई मुमकिन
सजा:- अपराध साबित होने पर तीन साल तक की जेल और/या पांच लाख रुपये तक जुर्माना।

डेटा की चोरी :-
किसी और व्यक्ति, संगठन वगैरह के किसी भी तकनीकी सिस्टम से निजी या गोपनीय डेटा (सूचनाओं) की चोरी। अगर किसी संगठन के अंदरूनी डेटा तक आपकी आधिकारिक पहुंच है, लेकिन अपनी जायज पहुंच का इस्तेमाल आप उस संगठन की इजाजत के बिना, उसके नाजायज दुरुपयोग की मंशा से करते हैं, तो वह भी इसके दायरे में आएगा। कॉल सेंटरों, दूसरों की जानकारी रखने वाले संगठनों आदि में भी लोगों के निजी डेटा की चोरी के मामले सामने आते रहे हैं।
कानून :-
- आईटी (संशोधन) कानून 2008 की धारा 43 (बी), धारा 66 (ई), 67 (सी)
- आईपीसी की धारा 379, 405, 420
- कॉपीराइट कानून
सजा:- अपराध की गंभीरता के हिसाब से तीन साल तक की जेल और/या दो लाख रुपये तक जुर्माना।

वायरस-स्पाईवेयर फैलाना :-
कंप्यूटर में आए वायरस और स्पाईवेयर के सफाए पर लोग ध्यान नहीं देते। उनके कंप्यूटर से होते हुए ये वायरस दूसरों तक पहुंच जाते हैं। हैकिंग, डाउनलोड, कंपनियों के अंदरूनी नेटवर्क, वाई-फाई कनेक्शनों और असुरक्षित फ्लैश ड्राइव, सीडी के जरिए भी वायरस फैलते हैं। वायरस बनाने वाले अपराधियों की पूरी इंडस्ट्री है जिनके खिलाफ कड़ी कार्रवाई होती है। वैसे, आम लोग भी कानून के दायरे में आ सकते हैं, अगर उनकी लापरवाही से किसी के सिस्टम में खतरनाक वायरस पहुंच जाए और बड़ा नुकसान कर दे।
कानून :-
- आईटी (संशोधन) एक्ट 2008 की धारा 43 (सी), धारा 66
- आईपीसी की धारा 268
- देश की सुरक्षा को खतरा पहुंचाने के लिए फैलाए गए वायरसों पर साइबर आतंकवाद से जुड़ी धारा 66 (एफ) भी लागू (गैर-जमानती)।
सजा:- साइबर-वॉर और साइबर आतंकवाद से जुड़े मामलों में उम्र कैद। दूसरे मामलों में तीन साल तक की जेल और/या जुर्माना।

पहचान की चोरी :-
किसी दूसरे शख्स की पहचान से जुड़े डेटा, गुप्त सूचनाओं वगैरह का इस्तेमाल करना। मिसाल के तौर पर कुछ लोग दूसरों के क्रेडिट कार्ड नंबर, पासपोर्ट नंबर, आधार नंबर, डिजिटल आईडी कार्ड, ई-कॉमर्स ट्रांजैक्शन पासवर्ड, इलेक्ट्रॉनिक सिग्नेचर वगैरह का इस्तेमाल करते हुए शॉपिंग, धन की निकासी वगैरह कर लेते हैं। जब आप कोई और शख्स होने का आभास देते हुए कोई अपराध करते हैं या बेजा फायदा उठाते हैं, तो वह आइडेंटिटी थेफ्ट (पहचान की चोरी) के दायरे में आता है।
कानून:-
- आईटी (संशोधन) एक्ट 2008 की धारा 43, 66 (सी)
- आईपीसी की धारा 419 का इस्तेमाल मुमकिन
सजा:- तीन साल तक की जेल और/या एक लाख रुपये तक जुर्माना।

ई-मेल स्पूफिंग और फ्रॉड :-
किसी दूसरे शख्स के ई-मेल पते का इस्तेमाल करते हुए गलत मकसद से दूसरों को ई-मेल भेजना इसके तहत आता है। हैकिंग, फिशिंग, स्पैम और वायरस-स्पाईवेयर फैलाने के लिए इस तरह के फ्रॉड का इस्तेमाल ज्यादा होता है। इनका मकसद ई-मेल पाने वाले को धोखा देकर उसकी गोपनीय जानकारियां हासिल कर लेना होता है। ऐसी जानकारियों में बैंक खाता नंबर, क्रेडिट कार्ड नंबर, ई-कॉमर्स साइट का पासवर्ड वगैरह आ सकते हैं।
कानून:-
- आईटी कानून 2000 की धारा 77 बी
- आईटी (संशोधन) कानून 2008 की धारा 66 डी
- आईपीसी की धारा 417, 419, 420 और 465।
सजा:- तीन साल तक की जेल और/या जुर्माना।

पोर्नोग्राफी :-
पोर्नोग्राफी के दायरे में ऐसे फोटो, विडियो, टेक्स्ट, ऑडियो और सामग्री आती है, जिसकी प्रकृति यौन हो और जो यौन कृत्यों और नग्नता पर आधारित हो। ऐसी सामग्री को इलेक्ट्रॉनिक ढंग से प्रकाशित करने, किसी को भेजने या किसी और के जरिये प्रकाशित करवाने या भिजवाने पर पोर्नोग्राफी निरोधक कानून लागू होता है। जो लोग दूसरों के नग्न या अश्लील विडियो तैयार कर लेते हैं या एमएमएस बना लेते हैं और इलेक्ट्रॉनिक माध्यमों से दूसरों तक पहुंचाते हैं, किसी को उसकी मर्जी के खिलाफ अश्लील संदेश भेजते हैं, वे भी इसके दायरे में आते हैं।
अपवाद: पोर्नोग्राफी प्रकाशित करना और इलेक्ट्रॉनिक जरियों से दूसरों तक पहुंचाना अवैध है, लेकिन उसे देखना, पढ़ना या सुनना अवैध नहीं है, लेकिन चाइल्ड पोर्नोग्राफी देखना भी अवैध है। कला, साहित्य, शिक्षा, विज्ञान, धर्म आदि से जुड़े कामों के लिए जनहित में तैयार की गई उचित सामग्री अवैध नहीं मानी जाती।
कानून:-
- आईटी (संशोधन) कानून 2008 की धारा 67 (ए)
- आईपीसी की धारा 292, 293, 294, 500, 506 और 509
सजा:- जुर्म की गंभीरता के लिहाज से पहली गलती पर पांच साल तक की जेल और/या दस लाख रुपये तक जुर्माना। दूसरी बार गलती करने पर जेल की सजा सात साल हो जाती है।

चाइल्ड पोर्नोग्राफी :-
ऐसे मामलों में कानून और भी ज्यादा कड़ा है। बच्चों को सेक्सुअल एक्ट में या नग्न दिखाते हुए इलेक्ट्रॉनिक फॉर्मैट में कोई चीज प्रकाशित करना या दूसरों को भेजना। इससे भी आगे बढ़कर कानून कहता है कि जो लोग बच्चों से जुड़ी अश्लील सामग्री तैयार करते हैं, इकट्ठी करते हैं, ढूंढते हैं, देखते हैं, डाउनलोड करते हैं, विज्ञापन देते हैं, प्रमोट करते हैं, दूसरों के साथ लेनदेन करते हैं या बांटते हैं तो वह भी गैरकानूनी है। बच्चों को बहला-फुसलाकर ऑनलाइन संबंधों के लिए तैयार करना, फिर उनके साथ यौन संबंध बनाना या बच्चों से जुड़ी यौन गतिविधियों को रेकॉर्ड करना, एमएमएस बनाना, दूसरों को भेजना आदि भी इसके तहत आते हैं। यहां बच्चों से मतलब है - 18 साल से कम उम्र के लोग।
कानून:-
- आईटी (संशोधन) कानून 2009 की धारा 67 (बी), आईपीसी की धाराएं 292, 293, 294, 500, 506 और 509
सजा:- पहले अपराध पर पांच साल की जेल और/या दस लाख रुपये तक जुर्माना। दूसरे अपराध पर सात साल तक की जेल और/या दस लाख रुपये तक जुर्माना।

तंग करना :-
सोशल नेटवर्किंग वेबसाइटों, ई-मेल, चैट वगैरह के जरिए बच्चों या महिलाओं को तंग करने के मामले जब-तब सामने आते रहते हैं। डिजिटल जरिए से किसी को अश्लील या धमकाने वाले संदेश भेजना या किसी भी रूप में परेशान करना साइबर क्राइम के दायरे में आता है। किसी के खिलाफ दुर्भावना से अफवाहें फैलाना (जैसा कि पूर्वोत्तर के लोगों के मामले में हुआ), नफरत फैलाना या बदनाम करना।
कानून:-
- आईटी (संशोधन) कानून 2009 की धारा 66 (ए)
सजा:- तीन साल तक की जेल और/या जुर्माना

आईपीआर (बौद्धिक संपदा) उल्लंघन :-
वेब पर मौजूद दूसरों की सामग्री को चुराकर अनधिकृत रूप से इस्तेमाल करने और प्रकाशित करने के मामलों पर भारतीय साइबर कानूनों में अलग से प्रावधान नहीं हैं, लेकिन पारंपरिक कानूनों के तहत कार्रवाई की मुनासिब व्यवस्था है। किताबें, लेख, विडियो, चित्र, ऑडियो, लोगो और दूसरे क्रिएटिव मटीरियल को बिना इजाजत इस्तेमाल करना अनैतिक तो है ही, अवैध भी है। साथ ही सॉफ्टवेयर की पाइरेसी, ट्रेडमार्क का उल्लंघन, कंप्यूटर सोर्स कोड की चोरी और पेटेंट का उल्लंघन भी इस जुर्म के दायरे में आता है।
कानून:-
- कॉपीराइट कानून 1957 की धारा 14, 63 बी
सजा:- सात दिन से तीन साल तक की जेल और/या 50 हजार रुपये से दो लाख रुपये तक का जुर्माना। 

Friday, 26 September 2014

विधि सन्देश 'काशी'

प्रथम संस्करण - शारदीय नवरात्र 
शुक्रवार - 26 सितम्बर 2014
वाराणसी कचहरी 

वर्ष : 1 - अंक : 1 - कुल पृष्ठ : 8
Page No. 1

Page No. 2



Wednesday, 24 September 2014

Best wishes for Navratri :-

Goddess 'Durga' is an embodiment of 'Shakti' who overcame the evils of the world. 
May this Navratri, everyone uses Her blessings and power to overcome their problems in life. 
~ Wish you a very Happy Navratri ~

Happy Navratri - Anshuman Dubey - 2014

Thursday, 4 September 2014

हिंदी भाषा का उच्चतम न्यायालय में प्रयोग :-

संविधान के रक्षक उच्चतम न्यायालय का राष्ट्र भाषा हिंदी में कार्य करना अपने आप में गौरव और हिंदी को प्रोत्साहन का विषय है। राजभाषा पर संसदीय समिति ने 28 नवंबर 1958 को संस्तुति की थी कि उच्चतम न्यायालय में कार्यवाहियों की भाषा हिंदी होनी चाहिए। इस संस्तुति को पर्याप्त समय व्यतीत हो गया है, किंतु इस दिशा में आगे कोई सार्थक प्रगति नहीं हुई है। जनगणना के आंकड़ों के अनुसार देश में अंग्रेजी भाषी लोग मात्र 0.021% ही हैं। इस दृष्टिकोण से भी अत्यंत अल्पमत की, और विदेशी भाषा जनता पर थोपना जनतंत्र का स्पष्ट निरादर है। देश की राजनैतिक स्वतंत्रता के 67 वर्ष बाद भी देश के सर्वोच्च न्यायालय की कार्यवाहियां अनिवार्य रूप से ऐसी भाषा में संपन्न की जा रही हैं, जो 1% से भी कम लोगों में बोली जाती है। इस कारण देश के सर्वोच्च न्यायालय के निर्णयों से अधिकांश जनता में अनभिज्ञता व गोपनीयता, और पारदर्शिता का अभाव रहता है। अब संसद में समस्त कानून हिंदी भाषा में बनाये जा रहे हैं और पुराने कानूनों का भी हिंदी अनुवाद किया जा रहा है अतः उच्चतम न्यायालय को हिंदी भाषा में कार्य करने में कोई कठिनाई नहीं है।
राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग, राष्ट्रीय उपभोक्ता संरक्षण आयोग, विधि आयोग आदि भारत सरकार के मंत्रालयों, विभागों के नियंत्रण में कार्यरत कार्यालय हैं और वे राजभाषा अधिनियम के प्रावधानों के अनुसरण में हिंदी भाषा में कार्य करने को बाध्य हैं तथा उनमें उच्चतम न्यायालय के सेवा निवृत न्यायाधीश कार्यरत हैं। यदि एक न्यायाधीश सेवानिवृति के पश्चात हिंदी भाषा में कार्य करने वाले संगठन में कार्य करना स्वीकार करता है, तो उसे अपने पूर्व पद पर भी हिंदी भाषा में कार्य करने में स्वाभाविक रूप से कोई कठिनाई नहीं होनी चाहिए। दिल्ली उच्च न्यायालय में 11 अनुवादक पदस्थापित हैं, जो आवश्यकतानुसार अनुवाद कार्य कर न्यायाधीशों के न्यायिक कार्यों में सहायता करते हैं। उच्चतम न्यायालय में भी हिंदी भाषा के प्रयोग को सुकर बनाने के लिए न्यायाधीशों को अनुवादक सेवाएं उपलब्ध करवाई जा सकती हैं।
आज केंद्र सरकार के अधीन कार्यरत ट्राइब्यूनल तो हिंदी भाषा में निर्णय देने के लिए कर्तव्यरूप से बाध्य हैं। अन्य समस्त भारतीय सेवाओं के अधिकारी हिंदी भाषी राज्यों में सेवारत होते हुए हिंदी भाषा में कार्य कर ही रहे हैं। राजस्थान उच्च न्यायालय की तो प्राधिकृत भाषा हिंदी ही है और हिंदी से भिन्न भाषा में कार्यवाही केवल उन्ही न्यायाधीश के लिए अनुमत है, जो हिंदी भाषा नहीं जानते हों। क्रमशः बिहार और उत्तरप्रदेश उच्च न्यायालयों में भी हिंदी भाषा में कार्य होता है। न्यायालय जनता की सेवा के लिए बनाये जाते हैं और उन्हें जनता की अपेक्षाओं पर खरा उतरना चाहिए। हिंदी भाषा को उच्चतम न्यायालय में कठोर रूप से लागू करने की आवश्यकता ही नहीं है, अपितु वैकल्पिक रूप से इसकी अनुमति दी जा सकती है और कालांतर में हिंदी भाषा का समानांतर प्रयोग किया जा सकता है। आखिर हमें स्वदेशी भाषा हिंदी लागू करने के लिए कोई लक्ष्मण रेखा खेंचनी होगी-शुभ शुरुआत जो करनी है।
अब देश में हिंदी भाषा में कार्य करने में सक्षम न्यायविदों और साहित्य की भी कोई कमी नहीं है। न्यायाधीश बनने के इच्छुक, जिस प्रकार कानून सीखते हैं, ठीक उसी प्रकार हिंदी भाषा भी सीख सकते हैं, चूंकि किसी न्यायाधीश को हिंदी नहीं आती, अत: न्यायालय की भाषा हिंदी नहीं रखी जाए, तर्कसंगत व औचित्यपूर्ण नहीं है। इससे यह संकेत मिलता है कि न्यायालय न्यायाधीशों और वकीलों की सुविधा के लिए बनाये जाते हैं। देश के विभिन्न न्यायालयों से ही उच्चतम न्यायालय और उच्च न्यायालयों में न्यायाधीश आते हैं। देश के कुल 18008 अधीनस्थ न्यायालयों में से 7165 न्यायालयों की भाषा हिंदी हैं और शेष न्यायालयों की भाषा अंग्रेजी अथवा स्थानीय भाषा है। इन अधीनस्थ न्यायालयों में भी कई न्यायालयों की कार्य की भाषा अंग्रेजी है, जबकि अभियोजन की प्रस्तुति हिंदी या क्षेत्रीय भाषा में की जा रही है। पंजाब, हरियाणा, दिल्ली, पश्चिम बंगाल, महाराष्ट्र, गुजरात, केरल, तमिलनाडु आदि इसके उदाहरण हैं। इस प्रकार कई राज्यों में अधीनस्थ न्यायालयों, उच्च न्यायालय में अभियोजन की भाषाएं भिन्न-भिन्न हैं, किंतु उच्च न्यायालय अपनी भाषा में सहज रूप से कार्य कर रहे हैं।
संसदीय राजभाषा समिति की संस्तुति संख्या 44 को स्वीकार करने वाले राष्ट्रपति के आदेश को प्रसारित करते हुए राजभाषा विभाग के (राजपत्र में प्रकाशित) पत्रांक I/20012/07/2005-रा.भा.(नीति-1) दिनांक 02.07.2008 में कहा गया है-“जब भी कोई मंत्रालय विभाग या उसका कोई कार्यालय या उपक्रम अपनी वेबसाइट तैयार करे तो उसे अनिवार्य रूप से द्विभाषी तैयार किया जाए। जिस कार्यालय की वेबसाइट केवल अंग्रेजी में है, उसे द्विभाषी बनाए जाने की कार्यवाही की जाए।”  फिर भी राजभाषा को लागू करने में कोई कठिनाई आती है तो केंद्रीय अनुवाद ब्यूरो अथवा आउटसोर्सिंग से इस प्रसंग में सहायता भी ली जा सकती है।
संसदीय राजभाषा समिति की रिपोर्ट खंड-5 में की गयी संस्तुतियों को राष्ट्रपति की पर्याप्त समय से पहले, राज-पत्र में प्रकाशित पत्रांक I/20012/4/92-रा.भा.(नीति-1) दिनांक 24.11.1998 से ही स्वीकृति प्राप्त हो चुकी है। संस्तुति संख्या (12)-उच्चतम न्यायलय के महा-रजिस्ट्रार के कार्यालय को अपने प्रशासनिक कार्यों में संघ सरकार की राजभाषा नीति का अनुपालन करना चाहिए। वहां हिंदी में कार्य करने के लिए आधारभूत संरचना स्थापित की जानी चाहिए और इस प्रयोजन के लिए अधिकारियों और कर्मचारियों को प्रोत्साहन दिए जाने चाहिएं। संस्तुति संख्या (13)-उच्चतम न्यायालय में अंग्रेजी के साथ–साथ हिंदी का प्रयोग प्राधिकृत होना चाहिए। प्रत्येक निर्णय दोनों भाषाओं में उपलब्ध हों। उच्चतम न्यायालय द्वारा हिंदी और अंग्रेजी में निर्णय दिया जा सकता है, अत: अब कानूनी रूप से भी उच्चतम न्यायालय में हिंदी भाषा के प्रयोग में कोई बाधा शेष नहीं रह गयी है।
संविधान के अनुच्छेद 348 में यह प्रावधान है कि जब तक संसद विधि द्वारा अन्यथा उपबंध न करे तब तक उच्चतम न्यायालय और प्रत्येक उच्च न्यायालय में सभी कार्यवाहियां अंग्रेजी भाषा में होंगी। उच्च न्यायालयों में हिंदी भाषा के प्रयोग का प्रावधान दिनांक 07-03-1970 से किया जा चुका है और वे राजभाषा अधिनियम की धारा 7 के अंतर्गत अपनी कार्यवाहियां हिंदी भाषा में स्वेच्छापूर्वक कर रहे हैं। ठीक इसी के समानांतर राजभाषा अधिनियम में निम्नानुसार धारा 7क अन्तःस्थापित कर संविधान के रक्षक उच्चतम न्यायालय में भी हिंदी भाषा के वैकल्पिक उपयोग का मार्ग प्रक्रियात्मक रूप से खोला जा सकता है।
धारा 7 क. उच्चतम न्यायालय के निर्णयों आदि में हिंदी का वैकल्पिक प्रयोग-“नियत दिन से ही या तत्पश्चात्‌ किसी भी दिन से राष्ट्रपति की पूर्व सम्मति से, अंग्रेजी भाषा के अतिरिक्त हिंदी भाषा का प्रयोग, उच्चतम न्यायालय द्वारा पारित या दिए गए किसी निर्णय, डिक्री या आदेश के प्रयोजनों के लिए प्राधिकृत कर सकेगा और जहां कोई निर्णय, डिक्री या आदेश हिंदी भाषा में पारित किया या दिया जाता है, वहां उसके साथ-साथ उच्चतम न्यायालय के प्राधिकार से निकाला गया अंग्रेजी भाषा में उसका अनुवाद भी होगा।” इस हेतु संविधान में किसी संशोधन की कोई आवश्यकता नहीं है। हिंदी के वैकल्पिक उपयोग के प्रावधान से न्यायालय की कार्यवाहियों में कोई व्यवधान या हस्तक्षेप नहीं होगा, अपितु राष्ट्र भाषा के प्रसार के एक नए अध्याय का शुभारंभ हो सकेगा।

न्यायिक अधिकारियों के कितने पद खाली हैं, भारत में (as on 20.03.2025) by #Grok

भारत में न्यायिक अधिकारियों के रिक्त पदों की संख्या समय-समय पर बदलती रहती है, क्योंकि यह नियुक्तियों, सेवानिवृत्ति, और स्वीकृत पदों की संख्य...