देखा जाए तो मृत्यु के बाद पीने-पिलाने, खाने-खिलाने, नाचने-गाने और बकायदा जश्न मनाने का चलन कई जातियों में है। नगाड़े की जोशीली संगीत पर थिरकते बूढ़े-बच्चे और नौजवान। किसी चेहरे पर शोक की कोई रेखा नहीं, हर होंठ पर मुस्कान। मद्य के सुरूर में मदमस्त लोगों का हर्ष मिश्रित शोर। जुलूस चाहे जहां से भी निकाला हो, मगर झूमता-घूमता शमशान घाट की ओर बढ़ता चला जाता है।
जुलूस भी आम सामान्य नहीं। इसका जोश देखकर ऐसा भ्रम होता है, मानो कोई वरयात्रा द्वाराचार के लिए वधू पक्ष के द्वार की ओर बढ़ रहा हो। मगर अचानक ही यह भ्रम उस वक़्त टूट जाता है, जब ‘यात्रा’ के नजदीक पहुंचने पर बाजे-गाजों के शोर के बीच ही ‘राम नाम सत्य है’ के स्वर कानों से टकराने लगते हैं, उसी क्षण यह भी स्पष्ट हो जाता है कि, वह वरयात्रा नहीं बल्कि शवयात्रा है।
सदियों से काशी का मणिकर्णिका घाट व हरीशचंद्र घाट लोगों के शवदाह का गवाह बनता आया है। गंगा के तट पर बसा बनारस (वाराणसी) एक मात्र ऐसा शहर है जहां मरने के बाद मृत्यु का उत्सव मनाया जाता है, मरने की खुशी मनाई जाती है। खुशी, सांसारिक सुख त्यागने कि, खुशी, मोक्ष प्राप्त करने की और इसी खुशी को देखने और भारतीय संस्कृति के इस पौराणिक मान्यता से रूबरू होने प्रत्येक वर्ष दुनिया भर से ढेरों पर्यटक काशी का रुख करते हैं। काशी में हर तरह की अनुभूति प्रपट करते हुए सभी घाटों के बीच मन की शांति के साथ उन्हें जीवन-मरण के सुख का भी ज्ञान हो जाता है।
आखिर क्यों, इस तरह का जोश, हर्ष उल्लास वो भी किसी अपने की मृत्यु पर बार-बार यही सवाल मन में आता होगा?
शवयात्रा में शामिल लोगों से पूछा जायेगा तो ज्ञात होगा कि, मृतक ‘'एक सौ दुई साल तक जियलन, मन लगा के आपन करम कइलन, जिम्मेदारी पूरा कइलन। नाती-पोता, पड़पोता खेला के बिदा लेहलन त गम कइसन। मरे के त आखिर सबही के हौ एक दिन, फिर काहे के रोना-धोना। मटिये क सरीर मटिये बनल बिछौना।’'
उपरोक्त बातों को बताने वाले व्यक्ति को शायद खुद भी नहीं मालूम कि उनकी जुबान से खुद 'कबीर' बोल रहे हैं, जो ‘निरगुनिया’ गाते बोल गए हैं कि, "माटी बिछौना माटी ओढ़ना माटी में मिल जाना होगा।"
जाने अनजाने में ही कितनी बड़ी बात बोल गया यह इंसान जो यकीनन हर किसी के जीवन का सबसे बड़ा सत्य है और शायद इसीलिए काशी का अपना ही महत्व है और इतनी खास हमारी "काशी" है।
@KashiSai
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