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न्यायाधीशों के लिए आचार संहिता के 16 बिंदु:-

न्यायाधीशों के लिए आचार संहिता के 16 बिंदुओं में से एक यह है कि न्यायाधीश को अपने पद से तब तक कोई वित्तीय लाभ नहीं मांगना चाहिए जब तक कि यह स्पष्ट रूप से उपलब्ध न हो। अन्य बिंदुओं में शामिल हैं:    न्यायिक स्वतंत्रता: न्यायाधीशों को व्यक्तिगत और संस्थागत दोनों पहलुओं में न्यायिक स्वतंत्रता को बनाए रखना चाहिए।    निष्पक्षता: न्यायाधीशों को अपने निर्णय तथा निर्णय लेने की प्रक्रिया दोनों में निष्पक्ष होना चाहिए।    अखंडता: न्यायाधीशों में निष्ठा होनी चाहिए।    औचित्य: न्यायाधीशों को उचित तरीके से कार्य करना चाहिए और ऐसा करते हुए दिखना भी चाहिए।    समानता: न्यायाधीशों को यह सुनिश्चित करना चाहिए कि अदालत में सभी लोगों के साथ समान व्यवहार किया जाए।    सार्वजनिक नज़र: न्यायाधीशों को यह पता होना चाहिए कि वे सार्वजनिक जांच के अधीन हैं और उन्हें ऐसा कार्य नहीं करना चाहिए जो उनके उच्च पद के अनुरूप न हो।    न्यायपालिका को कमजोर करने वाली गतिविधियों से बचना: न्यायाधीशों को ऐसी गतिविधियों से बचना चाहिए जो न्यायपालिका या उनके न्यायिक पद की गरिमा को नुकसान पहुंचा सकती हों।    व्यावसायिक गोपनीयता: न्या
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स्वतंत्रता के मायने और महिलाओं का सम्मान:-

स्वतंत्रता के मायने तभी हैं जब स्वतंत्रता में मर्यादा, चरित्र और समर्पण का भाव हो। अगर स्वतंत्रता में मर्यादा, चरित्र और समर्पण ही नहीं है तो यह आजादी नहीं बल्कि एक प्रकार का छुट्टापन होता है। जिस पर कोई भी लगाम नहीं होती। यही छुट्टापन देश और समाज में बलात्कार, छेड़खानी, हत्या और मॉब लिंचिंग जैसी घटनाओं के अंजाम के लिए जिम्मेदार होता है। क्या भारत में हर किसी को आजादी से जीने का हक मिल पाया है? हमें आजादी मिली, उसका हमने क्या सदुपयोग किया। लोग पेड़ों को काट रहे हैं। बालिका भ्रूण की हत्या हो रही है। सड़कों पर महिलाओं पर अत्याचार होते हैं। अकेले रह रहे बुजुर्गों की हत्या कर दी जाती है। शराब पीकर लोग देश में सड़क हादसों को अंजाम देते हैं, और दूसरे बेगुनाह लोगों को मार देते हैं। ये कैसी आजादी है, जहां एक व्यक्ति दूसरे व्यक्ति के अधिकारों का हनन कर रहा है। आज भी देश महिलाओं को पूर्णतः स्वतंत्रता नहीं है, आज भी देश में महिलाओं को बाहर अपनी मर्जी से काम करने से रोका जाता है। महिलाओं पर तमाम तरह की बंदिशें परिवार और समाज द्वारा थोपी जाती हैं जो कि संविधान द्वारा प्रदत्त महिलाओं को उनके मौलिक अधिका

अधिवक्ताओं के बीच जातिवाद:-

जातिवाद एक सामाजिक बुराई है जो समाज के विभिन्न वर्गों के बीच असमानता और भेदभाव को जन्म देती है। यह समस्या विभिन्न पेशों में भी व्याप्त है, और अधिवक्ताओं का पेशा भी इससे अछूता नहीं है। भारत एक विविधतापूर्ण देश है, जहाँ विभिन्न जातियाँ, धर्म, और भाषाएँ सहअस्तित्व में हैं। संविधान में जाति आधारित भेदभाव को समाप्त करने के लिए कई प्रावधान हैं, लेकिन व्यवहारिक जीवन में जातिवाद अभी भी मौजूद है। न्यायिक प्रणाली, जिसका उद्देश्य सभी नागरिकों को न्याय दिलाना है, खुद इस सामाजिक समस्या से प्रभावित है। अधिवक्ताओं के पेशे में जातिवाद के कारण 1. सामाजिक संरचना : भारतीय समाज की संरचना जाति आधारित है, और यह संरचना पेशेवर क्षेत्रों में भी प्रतिबिंबित होती है। कई बार अधिवक्ताओं को उनके जाति के आधार पर देखा जाता है और उनके साथ भेदभाव किया जाता है।    2. शैक्षिक और आर्थिक असमानता : उच्च जाति के लोग आमतौर पर बेहतर शिक्षा और आर्थिक संसाधनों तक पहुँच रखते हैं, जिससे वे अधिवक्ता के रूप में स्थापित होने में सफल होते हैं। निम्न जाति के लोग आर्थिक और शैक्षिक असमानताओं के कारण इस पेशे में कम दिखाई देते हैं।    3. न

जातिवाद: समाज का एक नासूर

जातिवाद भारतीय समाज के लिए एक गहरा और गंभीर मुद्दा है। यह एक ऐसी सामाजिक बुराई है जिसने सदियों से हमारे समाज को विभाजित और कमजोर किया है। जातिवाद एक नासूर की तरह है जो समाज के स्वस्थ विकास में बाधा उत्पन्न करता है और न्याय, समानता, और समरसता के मूल्यों को कमजोर करता है। इस आलेख में जातिवाद के विभिन्न पहलुओं, इसके प्रभावों, और इससे निपटने के उपायों पर चर्चा की जाएगी। जातिवाद के लक्षण 1. सामाजिक विभाजन : जातिवाद समाज को विभिन्न जातियों और उप-जातियों में विभाजित करता है। यह विभाजन सामाजिक संबंधों, विवाह, और सामाजिक सहभागिता को प्रभावित करता है। 2. भेदभाव और अन्याय : जातिवाद के कारण समाज के कमजोर और दलित वर्गों के साथ भेदभाव और अन्याय होता है। उन्हें शिक्षा, रोजगार, और सामाजिक सम्मान में समान अवसर नहीं मिलते। 3. अस्पृश्यता : जातिवाद के चलते कुछ जातियों के लोगों को अस्पृश्य माना जाता है, जिससे उनके साथ अमानवीय व्यवहार किया जाता है और सामाजिक बहिष्कार होता है। 4. हिंसा और उत्पीड़न : जातिगत भेदभाव के कारण अक्सर जातीय हिंसा और उत्पीड़न की घटनाएं घटित होती हैं, जो समाज में असुरक्षा और तनाव को ब

नफ़रत की राजनीति:-

" नफ़रत की राजनीति " एक ऐसा शब्द है जो उन राजनीतिक रणनीतियों और अभियानों को संदर्भित करता है जो विभाजन, भेदभाव और नकारात्मक भावनाओं पर आधारित होते हैं। इस प्रकार की राजनीति में नेता और राजनीतिक दल उन मुद्दों पर ध्यान केंद्रित करते हैं जो समाज में ध्रुवीकरण उत्पन्न करते हैं, जैसे कि जाति, धर्म, नस्ल या राष्ट्रीयता। इस प्रकार की राजनीति के कुछ मुख्य लक्षण निम्नलिखित हो सकते हैं:- विभाजनकारी भाषा :-  नेताओं द्वारा भाषणों और बयानों में ऐसे शब्दों और वाक्यांशों का उपयोग करना जो समाज के विभिन्न वर्गों के बीच वैमनस्य पैदा करते हैं। संवेदनशील मुद्दों का उपयोग :- विवादास्पद और संवेदनशील मुद्दों को उठाकर जनता की भावनाओं को भड़काना। भय और असुरक्षा का प्रचार :- समाज के एक वर्ग के प्रति डर और असुरक्षा की भावना को बढ़ावा देना। अल्पसंख्यकों को निशाना बनाना :- अल्पसंख्यक समुदायों को नकारात्मक रूप में प्रस्तुत करना और उनके खिलाफ अभियान चलाना। समूह पहचान का उभार :- लोगों को उनकी जातीय, धार्मिक या सांस्कृतिक पहचान के आधार पर विभाजित करना। इस प्रकार की राजनीति समाज के ताने-बाने को नुकसान पहुंचा

रामनगर की रामलीला:-

रामनगर की रामलीला भारत के उत्तर प्रदेश राज्य के वाराणसी जिले के रामनगर क्षेत्र में मनाई जाने वाली प्रसिद्ध रामलीला कार्यक्रम है। यहां की रामलीला का आयोजन वर्षांत काल दशहरा उत्सव के अवसर पर होता है और यह कार्यक्रम बड़े धूमधाम से मनाया जाता है।रामनगर की रामलीला का विशेषत:पुरातात्विक महत्व: यहां की रामलीला कार्यक्रम में पुरातात्विक सौंदर्य और धार्मिक महत्व का मिलन होता है। यहां के स्थलीय लोग विभिन्न पारंपरिक धार्मिक रूप, श्रृंगारिक वस्त्र और मेकअप में भगवान राम, सीता, लक्ष्मण, हनुमान आदि के चरणरज बद्ध होते हैं।आकर्षण: यहां के रामलीला कार्यक्रम बड़े ही आकर्षक होते हैं और लाखों लोग इसे देखने के लिए आते हैं। कार्यक्रम का आयोजन काशी के प्रमुख स्थलों में किया जाता है और वहां की बड़ी जगहों पर आकर्षण स्थल और दृश्यों का आयोजन किया जाता है।सांस्कृतिक परंपरा: रामनगर की रामलीला एक महत्वपूर्ण सांस्कृतिक परंपरा का हिस्सा है और यह लोगों को हिन्दू धर्म के महत्वपूर्ण कथाओं और धार्मिक संदेशों के प्रति जागरूक करता है। रामनगर की रामलीला भारतीय सांस्कृतिक धरोहर का महत्वपूर्ण हिस्सा है और यहां के

कबीर के राम :: डॉ. अभिषेक रौशन

आलेख : कबीर के राम - डॉ. अभिषेक रौशन सम्पादक, अपनी माटी  शनिवार, जुलाई 31, 2010 :-  कबीर के राम पर सोचते हुए मेरे मन में कई सवाल उठते हैं। कबीर के राम क्या हैं? परम्परा से आते हुए ‘राम’ और कबीर के राम में क्या अंतर है? कबीर विरोध और असहमति के जोश में निर्गुण राम को अपनाते हैं या इसके पीछे कोई ठोस सामाजिक कारण है? इसी सवाल से जुड़ा एक और सवाल है कि सगुण राम में ऐसी क्या अपर्याप्तता थी जिसके चलते कबीर को निर्गुण राम को चुनना पड़ा? कबीर ने निर्गुण राम की भक्ति की तो उसका विरोध हुआ क्या? अगर हाँ, तो क्यों? इस विरोध के पीछे सिर्फ़ भक्ति की प्रतिद्वंद्विता थी या इसके पीछे भी कोई सामाजिक कारण है? ये चंद सवाल ऐसे हैं जो कबीर के राम पर गहराई से सोचने को मजबूर कर देते हैं। कबीर के राम निर्गुण हैं, निराकार हैं, अगम्य हैं, इसकी चर्चा खूब हुई है। सगुण-निर्गुण के आध्यात्मिक विवाद से परे होकर भी क्या कबीर के राम को देखा जा सकता है? मैंने इसी प्रश्न पर अपना ध्यान केन्द्रित किया है। कबीर के पहले और बाद में राम-भक्ति की एक परम्परा मिलती है। वाल्मीकि से लेकर तुलसी और आधुनिक काल में निराला की