अधिवक्ता पेंशन योजना व युवा अधिवक्ता भत्ता योजना की हमारी मांग को बार काउंसिल अॉफ इंडिया ने अपने नये नियम BCI Certificate and Place of Practice (Verification) Rules, 2015 में भी अंकित कर अन्तिम रुप दे दिया है।
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निम्न स्तर की व्यवस्था में बिना सही नियोजन के उत्तर प्रदेश बार काउंसिल ने 10.06.2016 तक 70000+ अधिवक्ता बंधुओं के वेरिफिकेशन फार्म जमा करा लिये हैं।
अब देखना यह होगा कि इन फार्मों की जांच के उपरांत कब तक Certificate of Practice (COP) तथा वैधता तिथि के साथ वाला Identity Card कब तक मिलता है...???
यहां यह भी देखने योग्य होगा कि जिन अधिवक्ता बंधुओं ने वेरिफिकेशन फार्म नहीं भरा है, उनका क्या होता है...???
वेरिफिकेशन फार्म भरकर अधिवक्ता बंधुओं ने गेंद अब बार काउंसिल अॉफ इंडिया तथा बार काउंसिल अॉफ उत्तर प्रदेश के पाले में डाल दी हैं, अब देखना है कि बड़े-बड़े दावे करने वाले अब क्या-क्या करते हैं...???
वैसे यह कहने में कोई कष्ट नहीं है कि जिस तरीके से वेरिफिकेशन फार्म भरें व भरवायें गये हैं वह कहीं से भी स्तरीय नहीं था और यह खेद का विषय है।
बार काउंसिल का अधिवक्ताओं प्रति रवैया सही नहीं था। अॉनलाइन के युग में बाबा आदम के जमाने का तरीका, जहां एक पृष्ट के अॉनलाइन फार्म से काम चल सकता था वहां बिना बात के 11 पृष्ठ का फार्म manually भरवाया गया।
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पूरी न्यायिक प्रणाली के शीर्ष पर हमारा उच्चतम न्यायालय है। हर राज्य या कुछ राज्यों के समूह पर उच्च न्यायालय है। उनके अंतर्गत निचली अदालतों का एक समूचा तंत्र है। कुछ राज्यों में पंचायत न्यायालय अलग-अलग नामों से काम करते हैं, जैसे न्याय पंचायत, पंचायत अदालत, ग्राम कचहरी इत्यादि। इनका काम छोटे और मामूली प्रकार के स्थानीय दीवानी और आपराधिक मामलों का निर्णय करना है। राज्य के अलग-अलग कानून इन अदालतों का कार्यक्षेत्र निर्धारित करते हैं।
प्रत्येक राज्य न्यायिक जिलों में विभाजित है। इनका प्रमुख जिला एवं सत्र न्यायाधीश होता है। जिला एवं सत्र न्यायालय उस क्षेत्र की सबसे बड़ी अदालत होती है और सभी मामलों की सुनवाई करने में सक्षम होती है, उन मामलों में भी जिनमें मौत की सजा तक सुनाई जा सकती है। जिला एवं सत्र न्यायाधीश जिले का सबसे बड़ा न्यायिक अधिकारी होता है। उसके तहत दीवानी क्षेत्र की अदालतें होती हैं जिन्हें अलग-अलग राज्यों में मुंसिफ, उप न्यायाधीश, दीवानी न्यायाधीश आदि नाम दिए जाते हैं। इसी तरह आपराधिक प्रकृति के मामलों के लिए मुख्य न्यायिक मजिस्ट्रेट और प्रथम तथा द्वितीय श्रेणी के न्यायिक मजिस्ट्रेट आदि होते हैं।
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देश के कानूनी व्यवसाय से संबंधित कानून अधिवक्ता अधिनियम, 1961 और देश की बार काउंसिल द्वारा निर्धारित नियमों के आधार पर संचालित होता है। कानून के क्षेत्र में काम करने वाले पेशेवरों के लिए यह स्वनिर्धारित कानूनी संहिता है जिसके तहत देश और राज्यों की बार काउंसिल का गठन होता है। अधिवक्ता कानून, 1961 के तहत पंजीकृत किसी भी वकील को देश भर में कानूनी व्यवसाय करने का अधिकार है। किसी राज्य की बार काउंसिल में पंजीकृत कोई वकील किसी दूसरे राज्य की बार काउंसिल में अपने नाम के तबादले के लिए निर्धारित नियमों के अनुसार आवेदन कर सकता है। कोई भी वकील एक या ज्यादा राज्य की बार काउंसिल में पंजीकृत नहीं हो सकता है। अधिवक्ताओं की दो श्रेणियां हैं जिनमें से एक को वरिष्ठ अधिवक्ता और शेष को अधिवक्ता कहा जाता है। यदि उच्चतम न्यायालय और उच्च न्यायालय का यह मत है कि कोई अधिवक्ता अपनी योग्यता अदालत में अपनी स्थिति, विशेष जानकारी या कानूनी अनुभव के आधार पर वरिष्ठ अधिवक्ता बनने का अधिकारी है तो उसे उसकी सहमति से वरिष्ठ अधिवक्ता बनाया जा सकता है। वरिष्ठ अधिवक्ता किसी अन्य अधिवक्ता के बगैर उच्चतम न्यायालय में पेश नहीं हो सकता। दूसरे अधिवक्ता का नाम रिकॉर्ड में होना चाहिए। इसी तरह अन्य अदालतों और न्यायाधिकरणों में पेश होने के लिए सहयोगी अधिवक्ता का नाम राज्य सूची में दर्ज होना चाहिए। अधिवक्ता के रूप में पंजीकरण के लिए शिक्षा का स्तर निर्धारित है। व्यावसायिक आचरण और व्यवहार पर नियंत्रण के साथ-साथ अन्य मामलों के लिए नियम बनाए गए हैं। राज्य की बार काउंसिलों के पास अपने यहां पंजीकृत वकीलों के विरुद्ध कानूनी कार्यवाही का अधिकार होता है। इस कार्यवाही के विरुद्ध देश की बार काउंसिल में अपील की जा सकती है और उच्चतम न्यायालय में भी जाने का अधिकार मिला हुआ है।
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कनिष्ठ वकीलों को वित्तीय सहायता मुहैया कराकर उनकी सामाजिक सुरक्षा सुनिश्चित करना और दरिद्र एवं विकलांग वकीलों के लिए कल्याण कार्यक्रम चलाना कानूनी बिरादरी के लिए सदैव महत्वपूर्ण रहा है। कई राज्यों ने इस विषय पर अपने अलग विधान बनाए हैं। संसद में ‘अधिवक्ता कल्याण कोष कानून, 2001’ पारित किया है। यह कानून उन राज्यों और केंद्र शासित प्रदेश के लिए मान्य् है जहां इस विषय पर कोई कानून नहीं बना है। इस कानून का उद्देश्य है कि संबंधित सरकार ‘अधिवक्ता कल्याण कोष’ का गठन करे। इस कानून में यह अनिवार्य है कि हर वकील किसी भी न्यायालय, न्यायाधिकरण और प्राधिकार में वकालतनामा दाखिल करने के लिए निश्चित मूल्य के टिकट लगाए। ‘अधिवक्ता कल्याण कोष टिकट’ से जुटाई गई राशि अधिवक्ता कल्याण कोष का एक महत्वपूर्ण स्रोत है।
सभी वकील आवेदन राशि और वार्षिक चंदा देकर अधिवक्ता कल्याण कोष के सदस्य बन जाते हैं। इस कोष का संचालन संबद्ध सरकार द्वारा गठित ट्रस्टी करती है। सदस्य को गंभीर स्वास्थ्य समस्या होने पर इस कोष से अनुदान राशि दी जाती है या वकील की प्रैक्टिस बंद हो जाने पर एक निश्चित राशि का भुगतान किया जाता है। वकील की मौत हो जाने पर उसके कानूनी उत्तराधिकारी को भी राशि देने का प्रावधान है। इसके अतिरिक्त सदस्यों और उसके आश्रितों को चिकित्सा और शैक्षणिक सुविधा मुहैय्या कराने और वकीलों को पुस्तक खरीदने तथा समान सुविधाएं प्रदान करने के लिए भी राशि देने का प्रावधान है।
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एडवोकेट्स एक्ट, 1961 की धारा 40: आदेश पर रोक (Stay of Order) यह प्रावधान एक अधिवक्ता के विरुद्ध अनुशासनात्मक समिति (Disciplinary Committee) ...