पौराणिक साहित्य को ध्यान से देखें तो पाएंगे कि हमारे देवता भी सर्वथा निर्दोष या दुर्गुणों से मुक्त नहीं थे। लेकिन जहां उनका पतन हुआ, वहीं राक्षसों का जन्म हुआ। उन राक्षसों ने देवताओं को ही प्रताड़ित किया।
इन पाैराणिक कथाओं में मनुष्य के लिए संभवत: यही संदेश है। वह गलत वृत्तियों का शिकार हो सकता है। वही वृत्तियां हमारे समाज में राक्षस संस्कृति को जन्म देती हैं। और अंतत: मनुष्य को स्वयं ही उनका निदान या उपचार करना होता है।
इन बाताें काे यहां शेयर करने का तात्पर्य यह है कि, कुछ राक्षसी चरित्र के मनुष्य वर्तमान समय में तीव्र गति से विचरित हैं। जाे कुछ सज्जन/देवता व्यक्ति की गलत साेच का परिणाम हैं और उसका दण्ड सम्पूर्ण विद्वत समाज भाेग रहा है।
वशिष्ठ जी भगवान श्रीराम के वनवास प्रकरण पर भरत जी को समझाते हैं, इस अवसर पर बाबा तुलसीदास जी ने श्री रामचरितमानस की एक चौपाई में बहुत ही सुन्दर ढंग से लिखा हैं कि, "सुनहु भरत भावी प्रबल, बिलखि कहेहुँ मुनिनाथ। हानि, लाभ, जीवन, मरण, यश, अपयश विधि हाथ।" इस प्रकरण पर सुन्दर विवेचन प्रस्तुत हैं बाबा तुलसीदास जी ने कहा है कि, "भले ही लाभ हानि जीवन, मरण ईश्वर के हाथ हो, परन्तु हानि के बाद हम हारें न यह हमारे ही हाथ है, लाभ को हम शुभ लाभ में परिवर्तित कर लें यह भी जीव के ही अधिकार क्षेत्र में आता है। जीवन जितना भी मिले उसे हम कैसे जियें यह सिर्फ जीव अर्थात हम ही तय करते हैं। मरण अगर प्रभु के हाथ है, तो उस परमात्मा का स्मरण हमारे अपने हाथ में है।" @KashiSai
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