भारतीय समाज, विशेषकर हिंदुओं में जाति के प्रश्न बहुत पुराने हैं। यह ऐसी हकीकत है, जिसके कारण हिंदू धर्म को अनेकानेक आलोचनाएं झेलनी पड़ी हैं। इसका सहारा लेकर कथित ऊंची जातियां शताब्दियों से निम्नस्थ जातियों का शोषण करती आई हैं। इस कारण कुछ आलोचक जाति–प्रथा को भारतीय समाज का कलंक मानते हैं। काफी हद तक वे गलत भी नहीं हैं। आज भी समाज में जो भारी असमानता और ऊंच-नीच है, आदमी-आदमी के बीच गहरा भेदभाव है। जाति उसका बड़ा कारण है।
समाज में अार्थिक समानता लाने के लक्ष्य की यह आज भी सबसे बड़ी बाधा है। जातीय उत्पीड़न के शिकार समाज के दो-तिहाई से अधिक लोग, निरंतर इसकी जकड़बंदी से बाहर आने को छटपटाते रहे हैं। यदा-कदा उन्हें आंशिक सफलता भी मिली है। मगर आत्मविश्वास की कमी और बौद्धिक दासता की मनः स्थिति उन्हें बार-बार कथित ऊंची जातियों का वर्चस्व स्वीकारने को बाध्य करती रही है।
भारतीय समाज में जाति–विधान इतना अधिक प्रभावकारी है कि, सिख और इस्लाम जैसे धर्म भी, जिनमें जाति के लिए सिद्धांततः कोई स्थान नहीं है। इसके प्रभाव से अछूते नहीं हैं। इनमें सिख धर्म का तो जन्म ही जाति और धर्म पर आधारित विषमताओं के प्रतिकार-स्वरूप हुआ था, जबकि इस्लाम की बुनियाद बराबरी और भाईचारे पर रखी गई थी। भारत में आने के बाद इस्लाम पर भी जाति-भेद का रंग चढ़ चुका है।
जाति आधारित विभाजन पूरी तरह अमानवीय है। यह मनुष्य की नैसर्गिक स्वतंत्रता में अवरोध उत्पन्न करता है। जाति और वर्ण की संकल्पना सामान्य मनोविज्ञान के भी विपरीत है, जिसके अनुसार जन्म के समय सभी शिशु एक समान होते हैं। उनका मस्तिष्क कोरी सलेट जैसा होता है। एकदम साफ इबारत उस पर बाद में लिखी जाती है।
ब्राह्मण और शूद्र के शिशुओं को यदि एक साथ, एक ही जंगल में छोड़ दिया जाए और उनसे किसी भी प्रकार का संपर्क न रखा जाए; तो समान अवधि के उपरांत दोनों की बौद्धिक परिपक्वता का स्तर लगभग एक-समान होगा। जो भी अंतर होगा, उसके पीछे उनकी देह–यष्टि का योगदान होगा। लगभग वैसा ही विकास जैसा पशुओं और वन्य प्राणियों में दिखाई पड़ता है। जाहिर है मनुष्य अपने गुण-कर्म और प्रवृत्तियां समाज में रहते हुए ग्रहण करता है।
जाति–व्यवस्था के अनुसार मान लिया जाता है कि फलां शिशु ‘पंडित’ के घर में जन्मा है, इसलिए उसमें जन्मजात पांडित्य है। जबकि शूद्र के घर में जन्म लेने वाले शिशु सामान्य बुद्धि-विवेक से भी वंचित मान लिए जाते हैं। उनका काम बताया जाता है कि वर्ग विशेष की सेवा करना, उनकी चाकरी करते हुए जीवन बिताना। यह थोपी हुई दासता है। परंतु हिंदू परंपरा में इसे धर्म बताया गया है। बिना कोई शंका किए, चुपचाप परंपरानुसरण करते जाने को पुरुषार्थ की संज्ञा दी जाती रही है। इस तरह जो धर्म बुद्धिमत्तापूर्ण व्यवहार की अपेक्षा के साथ ब्राह्मण को शीर्ष पर रखता है और प्रकांतर में मानवीय विवेक का सम्मान करता है।
व्यवस्था बनते ही समाज के अस्सी प्रतिशत लोगों से बौद्धिक हस्तक्षेप और पसंदों का अधिकार छीनकर, पूरे समाज को नए ज्ञान का विरोधी बना देता है। हिंदू धर्म की यही विडंबना समय–समय पर उसके बौद्धिक एवं राजनीतिक पराभव का कारण बनी है। आज भी समाज में जो भारी असमानता और असंतोष है, उसके मूल में भी जाति ही है। जाति का लाभ उठा रहे वर्गों और जातीय उत्पीड़न का शिकार रहे लोगों के बीच अविश्वास की खाई इतनी गहरी है कि, संस्कृति को लेकर जरा-सी बहस भी चले तो जनता का बड़ा हिस्सा उसपर संदेह करने लगता है। इससे कई बार धार्मिक-सांस्कृतिक सुधारवादी आंदोलन भी खटाई में पड़ जाते हैं।
वैसे भी पांडित्य, चिंतन-मनन और स्वाध्याय की उपलब्धि होता है। वह न तो बैठे-ठाले आ सकता है, न ही व्यक्ति का जन्मजात गुण हो सकता है। कथित दैवी अनुकंपा भी जड़बुद्धि व्यक्ति को पंडित नहीं बना सकती। दूसरी ओर जाति है कि उसके माध्यम से एक वर्ग जन्मजात पांडित्य के दावे के साथ हाजिर होता है तो दूसरा वर्ग ‘शासक’ के रूप में। फिर निहित स्वार्थ के लिए ये दोनों वर्ग संगठित होकर शेष समाज के लिए शोषक की भूमिका में आ जाते हैं। ‘पांडित्य’ को यदि ज्ञान का पर्याय भी मान लिया जाए तो वह स्वाभाविक रूप से व्यवहार का विषय होगा, अनुभव का विषय होगा, प्रदर्शन की वस्तु वह हरगिज नहीं हो सकता।
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