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अधूरे राजनीतिक सुधार

सुप्रीम कोर्ट ने पांच जुलाई को चुनाव आयोग को निर्देश दिया कि वह चुनाव घोषणापत्र की विषयवस्तु के संबंध में दिशानिर्देश और नियम-कानून तैयार करे। सुप्रीम कोर्ट ने यह भी कहा कि अगर घोषणापत्र चुनाव की अधिसूचना की घोषणा से पहले जारी हो जाता है तो इसे आचारसंहिता के दायरे में लाया जाना चाहिए। स्पष्ट है कि सुप्रीम कोर्ट का यह आदेश संविधान के अनुच्छेद 324 के तहत आया है, जो चुनाव आयोग को स्वतंत्र और निष्पक्ष चुनाव कराने की जिम्मेदारी देता है। चुनावों में पारदर्शिता सुनिश्चित करने में यह फैसला मील का पत्थर साबित होगा। यदि इस आदेश का ईमानदारी से पालन किया जाए तो राजनीतिक दलों की अलगाववादी राजनीति और खैरात बांटने की प्रवृत्तिपर अंकुश लगेगा। भारत में राजनीतिक दल देश या राज्य की वित्ताीय स्थिति की अनदेखी कर मुफ्त सुविधाएं देने की घोषणा करते हैं। अमेरिका में चुनाव के दौरान उम्मीदवारों द्वारा किए जाने वाले वित्ताीय प्रकृति के तमाम वायदों की मीडिया और बुद्धिजीवी कड़ी पड़ताल करते हैं और टीवी पर चलने वाली खुली बहस में उम्मीदवारों को इन घोषणाओं के बारे में स्पष्टीकरण देना पड़ता है। भारत में राजनीतिक दलों के सामने ऐसी कोई बाध्यता नहीं है। दरअसल, मुफ्त में दी जाने वाली सुविधाओं का बोझ जनता पर ही पड़ता है और राजनीतिक दल इससे अल्पकालिक लाभ हासिल करते हैं।
हाल ही में, केंद्रीय सूचना आयोग ने फैसला दिया है कि सूचीबद्ध राजनीतिक दल सूचना के अधिकार कानून, 2005 के अनुच्छेद 2 के तहत सार्वजनिक इकाइयां हैं। इन दलों में कांग्रेस, भाजपा, माकपा, भाकपा, राकांपा और बसपा शामिल हैं। इस आदेश का उद्देश्य राजनीतिक दलों को मिलने वाले दान, चंदा और चुनावी वित्तापोषण का खुलासा सुनिश्चित करना है। यह स्पष्ट करना जरूरी है कि राजनीतिक दलों का आंतरिक प्रबंधन और उम्मीदवारों का चयन आरटीआइ के दायरे में नहीं आएगा। इस प्रावधान से इस फैसले के विरोध में एकजुट राजनीतिक दल अब तगड़ी चुनौती पेश नहीं कर पाएंगे।
ये दोनों घटनाएं, यानी सुप्रीम कोर्ट और केंद्रीय सूचना आयोग के फैसले उन बहुत से आयोगों की अनुशंसाओं जैसे हैं जिन्होंने राजनीतिक दलतंत्र में वित्ताय पारदर्शिता और आंतरिक लोकतंत्र सुनिश्चित करने के लिए नियमन की आवश्यकता को रेखांकित किया है। हमारे संविधान में राजनीतिक दलों के संबंध में सुनिश्चित प्रावधान नहीं हैं। भारतीय संवैधानिक व्यवस्था की बुनियाद व्यक्तियों की इकाई के संगठन को पंजीकृत राजनीतिक दल के गठन का अधिकार है। 5 जुलाई के अपने फैसले में सुप्रीम कोर्ट ने कहा था कि देश में राजनीतिक दलों के नियमन के लिए संसद को एक नया कानून बनाना चाहिए। भारत का विधि आयोग और संविधान की समीक्षा के लिए बना जस्टिस वेंकटचलैया आयोग पहले ही ऐसी अनुशंसा कर चुके हैं। भारत के पूर्व मुख्य न्यायाधीश एमएन वेंकटचलैया ने राजनीतिक दलों द्वारा सार्वजनिक जीवन में व्यवहार के मानदंड का मसौदा तैयार करने में सरकार का मार्गदर्शन किया था। राजनीतिक दलों के व्यवहार में सुधार के लिए सरकार को कोई भागीरथी प्रयास नहीं करना था। उसे तो बस इन आयोगों की अनुशंसाओं के आधार पर राजनीतिक दलों से बात करके निष्कर्ष पर पहुंचना भर था। चुनाव आयोग के सामने सबसे गंभीर चुनौती विभिन्न नियमों और नियमनों के साथ-साथ आदर्श आचार संहिता को अपनी सीमित क्षमताओं में लागू करना है। कुछ उदाहरणों से यह बात स्पष्ट हो जाएगी। जनप्रतिनिधित्व कानून 1951 के अनुच्छेद 29 सी के अनुसार तमाम पंजीकृत राजनीतिक दलों को अपनी वार्षिक रिपोर्ट चुनाव आयोग को देना जरूरी है, जिसमें 20 हजार रुपये से अधिक के तमाम व्यवहार दर्ज होने चाहिए। तभी ये दल कर में छूट प्राप्त करने के हकदार हो सकते हैं। आरटीआइ के जवाब में चुनाव आयोग ने बताया कि 2010-11 में 1196 में से महज 8 प्रतिशत पंजीकृत दलों ने 20 हजार से अधिक अंशदान दर्शाने वाली रिपोर्ट उसके कार्यालय में जमा कराई हैं। जनप्रतिनिधित्व कानून के तहत वित्ताीय वर्ष समाप्त होने के छह माह के भीतर राजनीतिक दलों को अपना वार्षिक वित्ताीय ब्यौरा चुनाव आयोग में जमा कराना जरूरी है। चुनाव आयोग ने चौंकाने वाला खुलासा किया है कि 2010-11 में 1196 में से महज 174 दलों ने ही वार्षिक वित्ताीय ब्यौरा सौंपा है। इसके बाद आयोग ने क्या कार्रवाई की, इसका पता नहीं है। कर में छूट वापस लेने का अधिकार वित्ता मंत्रालय को है, ऐसे में चुनाव आयोग ने अपात्र दलों की सूची वित्ता मंत्रालय को भेज दी है।
चुनाव आयोग को मिली शक्तियों का प्रभाव इसलिए घट जाता है, क्योंकि इसे दोषी राजनीतिक दलों पर हर्जाना लगाने का अधिकार नहीं है। नियमों के उल्लंघन की संस्कृति पंजीकृत दलों में घर कर चुकी है। क्या चुनाव आयोग के पास राजनीतिक दलों का पंजीकरण रद करने की शक्ति है? 10 मई, 2002 को सुप्रीम कोर्ट ने फैसला दिया कि वर्तमान कानून और नियम चुनाव आयोग को किसी दल का पंजीकरण रद करने का अधिकार नहीं देते। दलों के पंजीकरण का मखौल इस बात से भी स्पष्ट हो जाता है कि कम से कम 500 पंजीकृत दलों का सही-सही पता नहीं है और न ही उन्होंने कभी राच्य या राष्ट्रीय स्तर पर चुनाव में भागीदारी की है। 1998 में चुनाव आयोग ने भारत सरकार के समक्ष अर्जी लगाई थी कि उसे दलों का पंजीकरण रद करने का अधिकार दिया जाए। यह अर्जी अभी तक लंबित है।
राजनीतिक दलों पर नियमन के अभाव में भारत में ऐसा वातावरण बन गया है, जिसमें पार्टियां बहुत कम या बिल्कुल भी जिम्मेदारी नहीं निभातीं। आज आम आदमी यह देखकर व्यथित है कि प्रमुख राजनीतिक दल भी राष्ट्रीय सुरक्षा के लिए गंभीर खतरा बन चुके आतंकवाद पर तुच्छ राजनीति में लिप्त हैं। यह दयनीय है कि अधकचरी सूचनाओं के आधार पर सुरक्षा और जांच एजेंसियों पर बहस चल रही है। निष्कर्ष रूप में तीन बिंदुओं पर तत्काल ध्यान दिया जाना जरूरी है। पहला, चुनाव आयोग को घोषणापत्र के संबंध में राजनीतिक दलों की आचारसंहिता को लेकर दिशानिर्देश जारी करने चाहिए। दूसरे, चुनाव आयोग के ऐसे प्रस्तावों पर विधि मंत्रालय को तत्काल कानूनी सुधार लागू करने चाहिए, जो विवादित न हों। उदाहरण के लिए चुनाव आयोग को राजनीतिक दलों का पंजीकरण रद करने का अधिकार देना। सरकार को चुनाव सुधारों के लिए गठित प्रमुख आयोगों और सुप्रीम कोर्ट के आदेशों पर तत्काल कार्रवाई करनी चाहिए। नागरिकों को कम से कम यह सूचना तो मिलनी ही चाहिए कि कौन से राजनीतिक दल किन बाध्यकारी प्रावधानों की धच्जियां उड़ा रहे हैं? क्या इस महान लोकतंत्र में यह मांग भी नहीं की जा सकती?

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