Skip to main content

कबीर के राम :: डॉ. अभिषेक रौशन

कबीर के पहले और बाद में राम-भक्ति की एक परम्परा मिलती है। वाल्मीकि से लेकर तुलसी और आधुनिक काल में निराला की कविताओं में राम की गूँज मिलती है। यह जगजाहिर है कि कबीर के राम पुराण प्रतिपादित राम नहीं हैं। उनके राम और परम्परागत राम में बुनियादी अंतर है। वाल्मीकि के राम तपस्वी शम्बूक की हत्या करते हैं क्योंकि शम्बूक शूद्र हैं। भवभूति के राम भी शम्बूक की हत्या करते हैं। यह सही है कि भवभूति के राम को शम्बूक की हत्या करते समय द्वंद्व होता है, पर हत्या करते हैं। तुलसी के राम आदर्श पुरुष हैं, पर यह प्रसंग तो खटकता ही है कि उनके प्रिय भाई लक्ष्मण शूर्पणखा की नाक इसलिए काट लेते हैं कि वह प्रणय-निवेदन कर रही थी। निराला के राम पर आवरण अवतारी राम का है, पर वे मानव हैं। राम की यह उक्ति –मित्रवर विजय होगी न समर राम के भगवान् चरित्र को हिलाकर रख देती है।

कबीर के राम एक पावरहाउस हैं, जहाँ से वे जातिवाद से लड़ने की शक्ति लेते हैं। उनके राम अवतारी कदापि नहीं हैं –

दशरथ सुत तिहुँ लोक बख राम नाम का मरम है आना।।

कबीर अपने राम को अवतारी राम की छाया से भी दूर रखना चाहते हैं। उनके राम कमलनयन वाले नहीं हैं, फिर भी उनकी चेतना ज्यादा मानवीय है। कबीर अपने राम के साथ मानवीय सम्बन्ध स्थापित करते हैं –हरि मेरा पीव मैं हरि की बहुरिया। अपने भगवान के साथ मानवीय सम्बन्ध की कल्पना करना बहुत बड़ी बात है। तत्कालीन समाज में शूद्रों के लिए मंदिर-प्रवेश निषेध था, कुछ हद तक यह व्यवस्था आज तक बनी हुई है। वह शूद्र भगवान से प्यार करता है, पत्नी बनता है, भगवान के अपने भीतर होने की बात करता है। यह अपार क्रांतिकारिता और घोर सामाजिकता है। कबीर के राम मानवता की लड़ाई में एक विजयी झंडा हैं जिनके सामने कमलनयन वाले राम फीके पड़ जाते हैं। उनके राम किसी अवतारी राम से कम आदर्शवान् नहीं हैं। सिर्फ़ हमें परखने की दृष्टि और सहने की मानसिक क्षमता होनी चाहिए। कबीर राम के सहारे सामाजिक न्याय की लड़ाई लड़ते हैं। मुक्तिबोध ने लिखा है –पहली बार शूद्रों ने अपने संत पैदा किए। अपना साहित्य और अपने गीत सृजित किए। कबीर, रैदास, नाभा, सिंपी आदि-आदि महापुरुषों ने ईश्वर के नाम पर जातिवाद के विरुद्ध आवाज़ बुलंद की।[1]

     कबीर की चेतना अवतारी राम के साथ मेल खा ही नहीं सकती थी। वे अवतारवाद के विरोधी हैं, इसलिए निर्गुण राम को अपनाते हैं। अवतारवाद का मूल स्रोत समाज में सामंतवाद की उपस्थिति से है। तुलसी के रामराज्य से राजतंत्र का सीधा सम्बन्ध है। राजा ईश्वर का प्रतिनिधि होता है, यह पुरानी मान्यता है। बाद में राजा स्वयं ईश्वर बनने लगा। अवतारवाद सामंती तंत्र का दार्शनिक आधार है। सगुण भक्ति अवतारवाद के बिना संभव नहीं है। अवतारवाद वर्णाश्रम व्यवस्था से जुड़ा होता है। कबीर भला उस अवतारवाद को कैसे स्वीकारते, जिसके मूल में वर्णाश्रम की नैतिक स्वीकृति है। अवतारी राम कबीर का अपना कैसे हो सकता था –दस अवतार निरंजन कहिए सो अपना न कोई। डॉ. धर्मवीर ने लिखा है –इन अवतारों ने ब्राह्मणों के कल्याण के लिए भले ही अवतार लिया हो लेकिन शूद्र के उद्धार के लिए इनमें से एक भी सामने नहीं आया।[2] कबीर अवतारवाद के विरोधी हैं तो इसके कारण स्पष्ट हैं। वे उन देवी-देवताओं के नाम मजे में लेते हैं जो मानवता की रक्षा के लिए लड़े हैं। उनके राम नरसिंह, माधव हो सकते हैं।

     कबीर राम को अपने शरीर के भीतर बताते हैं –मोकों कहाँ ढूँढ़े बंदे, मैं तो तेरे पास में। वे राम को सबके भीतर बताकर एक साथ दो काम लेते हैं –

(क) भक्ति में मूर्तिपूजा, बाह्याचार और पंडित रूपी बिचौलिए से व्यक्ति बचा रहे। 

(ख)चूँकि सभी के भीतर एक ही भगवान् हैं, इसलिए सभी मानव समान हैं।

कबीर सचेत कवि हैं। उन्हें पता है कि अवतारवाद की ओर ज्यों ही फिसले कि वर्णाश्रम का राक्षस दौड़ा चला आएगा। इसलिए वे बार-बार कहते हैं कि वे निर्गुण राम की भक्ति कर रहे हैं।

     कबीर की भक्ति में सामाजिक वेदना निहित है। वे भगवान् से प्रेम करते हैं, चौसर खेलते हैं, पर उनकी सामाजिक वेदना उभरकर सामने आ ही जाती है –चार बरन घर एक है रे भाँति-भाँति के लोग। कबीर राम से प्रेम करते-करते भटकते हैं। इस भटकन में वर्णाश्रम व्यवस्था का दर्द है। तुलसी भी राम की भक्ति करते-करते भटकते हैं, पर उनकी भटकन में वर्णाश्रम की स्थापना है। कबीर को राम के प्रेम से वेद-महिमा-मंडित सामाजिक व्यवस्था भटकाती है। तुलसी को कबीर भटकाते हैं। कबीर की भटकन में एक बड़ा उद्देश्य है। तुलसी की भटकन में राम के साथ एक छल है। वे कथा राम की करते हैं और बात वर्णाश्रम की स्थापना की करते हैं। यह छल नहीं तो और क्या...? छल करने वाला भगवान् का सच्चा प्रेमी कैसे हो सकता है? घनानंद ने लिखा है –अति सूधो सनेह को मारग है जहाँ नेकु सयानप बाँक नहीं। तुलसी में राम के प्रति समर्पण की भावना तब झलकती है जब वे कहते हैं कि उनमें कवि का गुण नहीं है, राम का गुणगान करना ही सब कुछ है –

कवित्त विवेक एक नहीं मोरे।
सत्य कहऊँ लिखि कागद कोरे।।

पर इस समर्पण पर संदेह तब होता है जब वे बीच-बीच में कबीर जैसे निर्गुण भक्तों को गलियाने की जगह निकाल लेते हैं। कबीर अपने राम के माध्यम से मानव में आध्यात्मिक उत्कर्ष नहीं चाहते हैं। उनके लिए महत्वपूर्ण है समाज में मनुष्यत्व का जागरण। सत्य के दो रूप बतलाए गए हैं – पारमार्थिक रूप और व्यावहारिक रूप। पारमार्थिक सत्य में व्यक्ति-व्यक्ति में भेद नहीं होता है, पर व्यावहारिक सत्य में यह भेद जरूरी है। कबीर पारमार्थिक सत्य और व्यावहारिक सत्य में एकता की बात करते हैं और समतामूलक मानवीय समाज की माँग करते हैं। मराठी कवि शरणकुमार लिम्बाले की कविता है –

मस्जिद से अजान की आवाज़ आई

सब मुसलमान मस्जिद चले गए।

गिरजे की घंटियाँ बजीं

सब ईसाई गिरजे में चले गए।

मंदिर से घंटे की आवाज़ आई।

आधे लोग मंदिर में चले गए,

आधे बाहर ही रहे।

आधे लोग बाहर क्यों रह गए, कबीर की मूल समस्या यही है। अगर भगवान् सचमुच सबके लिए हैं तो यह भेद क्यों? कबीर को यही प्रश्न उलझाता है, सताता है। वे उस भक्ति को ही झूठा मानते हैं जो आधे लोगों को मंदिर में घुसने नहीं देती। जो भगवान् मानव-मानव में भेद करे वह सचमुच में भगवान् है क्या...?वह पत्थर की मूर्ति के सिवा कुछ नहीं। कबीर का व्यंग्य सामाजिक वेदना के चलते यहाँ कितना तीखा हो गया है –

पाहन पूजै हरि मिले तो मैं पूजूँ पहार।

चाकी क्यों नहीं पूजिए पीस खाए संसार।। 

कबीर की कठोरता में वह अकारण दंड है, जो पग-पग पर उन्हें अपमानित करता है। वे अपनी सामाजिक स्थिति के चलते ही हिन्दू-मुस्लिम धर्मान्धता पर प्रहार करने में सफल हुए हैं। द्विवेदी जी ने लिखा है –वे दरिद्र और दलित थे इसलिए अंत तक वे इस श्रेणी के प्रति की गई उपेक्षा को भूल न सके। उनकी नस-नस में इस अकारण दंड के विरुद्ध विद्रोह का भाव भरा था।[3]    तुलसी ने कबीर के राम का खूब विरोध किया है। कबीर के दसरथ सुत तिहुँ लोक बखाना.... के जवाब में वे लिखते हैं –

तुम्ह जो कहा राम कोउ आना।

जेहि श्रुति गाब धरहिं मुनि ध्याना।।

कबीर की कविता में राम रचे-बसे हैं। तुलसी के लिए राम से भी बड़ा है राम का भक्त। फिर तुलसी कबीर का विरोध क्यों करते हैं? क्या कबीर राम के भक्त नहीं हैं? उनसे बड़ा राम का भक्त कौन हो सकता है –कबीर कूता राम का, मुतिया मेरा नाऊँ। डॉ. विश्वनाथ त्रिपाठी ने लिखा है –उनके (तुलसी) अनुसार सार्थक कविता वही है जो राम से संबंधित हो। रामोन्मुखता तुलसी का सबसे बड़ा जीवन मूल्य है।[4] कबीर भी रामोन्मुख हैं, फिर भी तुलसी के अनुसार वे अधम नर हैं। कहा जा सकता है कि तुलसी ने निर्गुण राम का विरोध किया है। पर गौर से परखा जाए तो इस विरोध का कारण उनकी निर्गुण भक्ति नहीं है। चूँकि कबीर निर्गुण राम को अपनाते हुए वर्णाश्रम-व्यवस्था पर प्रहार करते हैं, इसलिए तुलसी उनका विरोध करते हैं। यह कहा जाता है कि वाल्मीकि से लेकर तुलसी तक राम का जो रूप चित्रित किया गया है, उसमें जो बात समान है, वह है राम के जीवन की अविरल संघर्ष परम्परा। क्या कबीर के राम कम संघर्षशील हैं? सच तो यह है कि वाल्मीकि से लेकर तुलसी तक के राम का जो संघर्ष दिखाया गया है, वह काल्पनिक जगत् का है। कबीर राम के सहारे वास्तविक जगत् से टकराते हैं, लड़ते हैं –

पंडित बाद बदंते झूठा।

राम कह्याँ दुनियाँ गति पाबै

खाँड कह्याँ मुख मीठा।।

कबीर की राम-भक्ति सिर्फ़ आध्यात्मिक जगत् की नहीं है। उनकी भक्ति में सामाजिक, सांस्कृतिक, राजनीतिक निहितार्थ छिपे हुए हैं।

     तुलसी दार्शनिक स्तर पर निर्गुण-सगुण में भेद नहीं मानते –

सगुनहि अगुनहि नहिं कछु भेदा।

गावहिं मुनि पुरान बुध वेदा।।

फिर सगुण-निर्गुण भक्त में भेद क्यों? एक आदर्श भक्त, दूसरा अधम नर क्यों? तुलसी ने निर्गुण भक्तों पर निशाना साधते हुए लिखा है –

कहहिं सुनहिं अस अधम नर ग्रसे जे मोह पिसाच।

पाखंडी हरिपद विमुख जानहिं झूठ न साँच।।

कबीर और तुलसी के लिए सबसे बड़ी समस्या है – वर्णाश्रम। एक वर्णाश्रम को तोड़कर समतामूलक समाज की स्थापना करना चाहता है, दूसरा वर्णाश्रम को बचाकर समाज को वेद-महिमा-मंडित बनाता है। तुलसी वेद की बात को समान्य जन की संवेदना में पिरोते हैं। प्रो. मैनेजर पांडेय ने बहुत ही सही लिखा है –वे (तुलसी) एक ओर वैदिक-पौराणिक परम्परा के लिए लोकमत में जगह बनाते हैं तो दूसरी ओर उस परम्परा में और लोकमत में अपनी जगह सुनिश्चित करते हैं।[5] कबीर के यहाँ राम वर्णाश्रम से जिरह करने का माध्यम हैं, तुलसी के यहाँ राम वर्णाश्रम को स्थापित करने का साधन हैं। वे ब्राह्मणवादी व्यवस्था के प्रवक्ता नज़र आते हैं। तुलसी भक्ति के क्षेत्र में मानव को समान मानते हैं, पर सिर्फ़ भक्त तक ही। भक्ति के बाहर वे ब्राह्मण को पूज्य और शूद्र को अधम घोषित करते हैं। मुक्तिबोध ने तुलसी की भक्ति-भावना को परखते हुए लिखा है –तुलसी को भक्ति का यह मूल तत्व तो स्वीकार करना ही पड़ा कि राम के सामने सब बराबर हैं, किन्तु चूँकि राम ने ही सारा समाज उत्पन्न किया है, इसलिए वर्णाश्रम धर्म और जातिवाद को तो मानना ही होगा।[6]समन्वयवादी संत तुलसी की मधुर वाणी का एक उदाहरण देखिए –

पूजिए विप्र सील गुन हीना।

सूद्र न गुन गन ज्ञान प्रवीना।।

तुलसी निर्गुण कवियों का स्पष्ट विरोध करते हैं। पूजिए विप्र सील गुन हीना... वाली पंक्ति उन्होंने निर्गुण कवि रैदास की इन पंक्तियों के विरोध में लिखी है –

रैदास बामन मत पूजियो जो होवे गुनहीन।

पाँव पूज चंडाल के जो हो ज्ञान प्रवीन।।

कबीर जिस समाज की स्थापना करना चाहते हैं, वह तुलसी के लिए कलियुग है। तुलसी ने कलियुग के लक्षण गिनाए हैं –

(क)स्त्रियाँ स्वतंत्र हो जाती हैं।

(ख)    शूद्र अपने अधिकार की बात करने लगते हैं।

सच तो यह है कि जिस व्यवस्था को तुलसी कलियुग कहते हैं, शूद्र और नारी की दृष्टि से वही सतयुग है। वे इस सतयुग के संस्थापक को दंभी, पाखंडी, अधम क्या-क्या कह डालते हैं। कबीर अपने राम के माध्यम से ऐसा सतयुग लाना चाहते हैं जहाँ एक मनुष्य दूसरे मनुष्य से मनुष्य की हैसियत से मिले। तुलसी इससे बहुत क्षुब्ध हैं। उनकी नाराज़गी इस दोहे में मुखर हो रही है –

कलिमल ग्रसे धर्म सब लुप्त भए सदग्रंथ।

दंभिन्ह निजमति कल्पि करि प्रगट किए बहुपंथ।।

तुलसी ने रामराज्य के जंजाल में अपने मत को पिरोकर अपने मत को इस तरह पेश किया है कि एक दृष्टि में वे जनवादी लगते हैं लेकिन उनके रामराज्य की मूल अवधारणा में वर्णाश्रम की प्रतिष्ठा है। शुक्ल जी ने लिखा है –गोस्वामी जी के समाज का आदर्श वही है जिसका निरूपण वेद, पुराण, स्मृति आदि में है; अर्थात् वर्णाश्रम की पूर्ण प्रतिष्ठा।[7]   अब एक और भक्त कवि सूर की चर्चा की जाए। सूर ने निर्गुण भक्ति के विरोध का एक अलग रास्ता अपनाया है। भ्रमरगीत का उद्धव-गोपी संवाद तपते प्रेम की मनोगाथा है, इसमें संदेह नहीं। पर इस तपते प्रेम में निर्गुण भक्ति को किस तरह झुलसाया गया है, यह देखने लायक है। भ्रमरगीत में अनेक पद निर्गुण भक्ति की निस्सारता को लेकर लिखे गए हैं। सूर ने निर्गुण के विरोध का ललित रास्ता अपनाया है, तुलसी की तरह आक्रामक शैली का नहीं। निरगुन कौन देस को बासी कहकर सूर क्या कहना चाहते हैं?‘निरगुन कौन देस को बासी और कबीर विदेशी परम्परा के भक्त थे, ये दोनों पंक्तियाँ दो रचनाकारों की हैं। पहली पंक्ति सोलहवीं शताब्दी का एक कवि लिखता है और दूसरी पंक्ति बीसवीं शताब्दी का एक आलोचक (शुक्ल जी)। दोनों में यह समानता क्यों? कबीर के विरोध का कारण परखते हुए प्रो. नामवर सिंह ने लिखा है –कबीर जैसे संत का विरोध सम्भवतः इसी सामन्ती-पुरोहिती दमन के चक्र से था, जिसमें जन-साधारण हिन्दू-मुसलमान दोनों ही पिस रहे थे।[8] कबीर राम-भक्ति में श्रेणी नहीं बनाते हैं। जिसके भीतर राम हैं, कबीर उसके पैर की धूल हैं –

जिहिं घटि राँम रहे भरपूरि,

ताकी मैं चरनन की धूरि।

कबीर के राम तथाकथित वर्णाश्रमी व्यवस्था द्वारा बनाए गए लोगों में वास करते हैं। नीच लोग भी राम की भक्ति पा सकते हैं –

अजामेल गज गनिका, पतीत करम कीन्हाँ।

तेऊ उतरि पारि गये, राँम नाँम लीन्हाँ।।

वहीं आदर्श भक्त कवि तुलसी अपनी सारी सहिष्णुता के बावजूद शूद्रों को अपनी औकात दिखा ही देते हैं। राम-कथा सुनने के अधिकारी की घोषणा तुलसी इस तरह करते हैं -

द्विज द्रोहहिं न सुनाइअ कबहूँ।

सुरपति सरिस होइ नृप जबहूँ।।

राम कथा के तेइ अधिकारी।

जिन्ह के सत संगति अति प्यारी।।

तुलसी स्पष्ट रूप से कहते हैं कि द्विजद्रोही इस कथा को सुनने का अधिकारी नहीं है। कबीर के लिए राममय होने का मतलब है प्रेममय होना। तुलसी राममय हुए हैं, पर वे प्रेममय नहीं हो पाए हैं।

     कबीर की कविता श्रमिक संस्कृति की कविता है। वे काम करते हुए राम का नाम लेने में विश्वास करते हैं। कबीर के राम आलसी, इधर-उधर भगवान् की खोज करने वालों को नहीं मिलते। उनके राम को निस्पृह, निश्छल प्रेम से ही पाया जा सकता है। कबीर उस राम को महत्वपूर्ण नहीं मानते जो खुद मंदिर में सोता है और व्यक्ति को समाज निरपेक्ष होकर भक्ति करना सिखाता है। वह पत्थर की मूर्ति के सिवा कुछ नहीं। कबीर ही इस बात की घोषणा कर सकते थे कि पत्थर की मूर्ति से महत्वपूर्ण चक्की है, जिससे अनाज पीसकर आदमी खाता है। तुलसी को श्रम का महत्व कहाँ पता? उनकी यह पंक्ति श्रम को झुठलाती है –

माँगि के खैबो, मसीत को सोइबो।।

तुलसी माँगकर खाने और मस्जिद में सोने की बात करते हैं। तुलसी जैसे हिन्दू प्रेमी कवि मस्जिद में सोने की बात करते हैं। यह मुहावरा मंदिर के साथ क्यों नहीं बना है? मंदिर के साथ यह छूट हो ही नहीं सकती।

कबीर के राम उन्हें काम करना सिखाते हैं। तुलसी सिर्फ़ राम का गुणगान करके ही संतुष्ट हो जाते हैं। निर्गुण भक्तों के यहाँ श्रम महत्वपूर्ण है। रैदास की

इन पंक्तियों में श्रम की महत्ता उफन रही है -

जिह्वा भजै हरिनाम नित, हत्थ करहिं नित काम।

 ‘रविदास भए निहचंत हम, श्रम चित करेंगे राम।।

     कबीर अमर देसवा की यूटोपिया रचते हैं। वहाँ पानी, धरती आकाश, सूरज, चाँद... कुछ भी नहीं हैं। पर इसके साथ वे यह भी कहना नहीं भूलते कि वहाँ ब्राह्मण, शूद्र, पठान... भी नहीं हैं। कबीर अपनी यूटोपिया में भी सामाजिक समता की बात करते हैं –

जहाँ से आयो अमर वह देसवा।

पानी न पान धरती अकसवा, चाँद न सूर न रैन दिवसवा।

बाम्हन छत्री न सूद्र बैसवा, मुगल पठान न सैयद सेखवा।।

तुलसी भी रामराज्य की यूटोपिया रचते हैं, लेकिन उनका रामराज्य भी श्रेणीगत समाज को अपनाकर ही बना है। मेरे मन में एक और सवाल उठता है कि कबीर न हुए होते तो मानस का स्वरूप क्या होता?तुलसी का वर्णाश्रमी उत्साह कवितावली में ठंडा क्यो पड़ गया है? हालाँकि ये प्रश्न बेतुके हैं, पर संदेह को पुष्ट करने के लिए कभी-कभी बेतुके प्रश्न भी काम के होते हैं। रामचरितमानस विजयी मन की गाथा है तो कवितावली हताश मन की अभिव्यक्ति।   हिन्दी आलोचना में भी कबीर का विरोध खूब हुआ है। वे निर्गुण राम को अपनाते हैं और अवतारी राम का विरोध करते हैं, केवल इसलिए उनकी खरी-खोटी आलोचना नहीं हुई है। यहाँ कबीर आलोचना का शिकार हुए हैं तो इसके पीछे भी मूल कारण है – वर्णाश्रम का विरोध। कबीर की वाणी अटपटी है तो निश्चित रूप से उनके राम भी अटपटे हैं। पर वह अटपटा राम पुराण-पोषित विद्वानों के सिर का दर्द बना हुआ है। कबीर के प्रतिद्वंद्वी और नाना पुराण निगमागम के मर्मज्ञ कवि तुलसी को रामचरितमानस लिखने का अतिरिक्त बोझ उठाना पड़ता है। कबीर की वाणी अटपटी नहीं है। कबीर जो कहते हैं, वह विद्वानों को अटपटा लगता है।  कबीर निर्गुण राम को अपनाते हैं और विधि विरोधी हो जाते हैं। कबीर भारत के राम को अपनाते हुए भी विदेशी सिद्ध किए जाते हैं। कबीर पर लोक विरोधी होने का आरोप लगाया जाता है। पर क्या कबीर अपने राम के द्वारा समाज को तोड़ने की बात करते हैं जो उन्हें लोक विरोधी कवि सिद्ध किया गया है? शुक्ल जी जायसी को कबीर की तुलना में विधि पर आस्था रखने वाला और भारतवर्ष का कवि मानते हैं। उन्होंने लिखा है –जायसी कवि थे और भारतवर्ष के कवि थे।[9] जायसी कबीर की तुलना में भारतवर्ष के कवि कम ही होंगे। शुक्ल जी कबीर जैसे निर्गुण कवियों को क्यों कोसते हैं, इसका कारण मुक्तिबोध ने तलाशा है –पं. रामचन्द्र शुक्ल जो निर्गुण मत को कोसते हैं, वह यों ही नहीं। इसके पीछे उनकी सारी पुराण-मतवादी चेतना बोलती है।[10]

    

द्विवेदी जी कबीर को क्रांतिकारी कवि मानते हैं, पर उनकी समाज-सुधार वाली बात को फोकट का माल बताते हैं। द्विवेदी जी ने लिखा है –वे मूलतः भक्त थे। भगवान् पर उनका अखंड विश्वास था। वे कभी सुधार के फेर में नहीं पड़े।[11] कबीर सौ प्रतिशत भक्त थे। राम उनका सहारा हैं। उनके निर्गुण राम अपनाने का उद्देश्य क्या है, यह देखना ज्यादा महत्वपूर्ण है। उनकी भक्ति का लक्ष्य क्या था, इसकी जाँच की जानी चाहिए। तत्कालीन समाज में अपनी बात कहने का भक्ति एक आधार थी। चूँकि उस समाज में भक्ति या राम के सहारे ही लोग अपने आपको श्रेष्ठ घोषित करते थे, इसलिए कबीर ने राम को अपनाया, भक्ति का जवाब भक्ति से दिया और परंपरा से आती हुई भक्ति की परिभाषा बदल दी। वेदज्ञ, शास्त्रज्ञ को विद्वान माना जाता था। कबीर ने इस मान्यता को उलट दिया –ढाई आखर प्रेम का पढ़े सो पंडित होय। जिस मानुष सत्य के लिए कोई व्यक्ति भक्ति करता है, वह फोकट का माल कैसे हो सकता है?‘कबीर व्यक्तिगत साधना के प्रचारक थे, पर इस साधना का उद्देश्य व्यक्ति, समाज को बदलना ही तो था। डॉ. वीर भारत तलवार ने लिखा है –कबीर की साधना को व्यक्तिगत साधना कहना इसी अर्थ में सही हो सकता है कि उस साधना का स्वरूप व्यक्तिगत है, उसकी पद्धति व्यक्तिगत है लेकिन उसका ऐतिहासिक तत्व व्यक्तिगत नहीं, सामाजिक था।[12

कबीर और उनके राम पर सोचने में उनको दिक्कत होती है जो भक्ति और भगवान् पर ब्राह्मणों के एकाधिकार के पूर्वग्रह से ग्रसित हैं। उन्हें यह प्रश्न बार-बार परेशान करता है कि कबीर ने ब्राह्मणी भक्ति, बाह्याचार आदि का विरोध किया तो फिर राम को क्यों अपनाया? राम किसी की निजी सम्पत्ति नहीं हैं। एक ब्राह्मण का राम नाम पर जितना अधिकार है, उतना ही एक शूद्र का। डॉ. धर्मवीर ने लिखा है –चूँकि ब्राह्मण ईश्वर में विश्वास रखता है तो इसीलिए दलित ईश्वर में विश्वास नहीं रखेगा। यह वैसा ही तर्क हुआ कि चूँकि ब्राह्मण रोटी खाता है इसीलिए दलित रोटी नहीं खाएगा। होना यह चाहिए था कि ब्राह्मण के ईश्वर के जवाब में दलित चिंतक अपना ईश्वर अलग से खोजता।[13] कबीर अपने उसी ईश्वर को खोज रहे थे, खोज चुके थे। उनकी मानवता की लड़ाई में राम एक उत्तम टेक्नोलॉजी से बनी मिसाइल हैं। भारतीय समाज के लिए राम शब्द एक बहुप्रचलित ट्रेडमार्क की तरह है जिस ट्रेडमार्क का सहारा लेते हुए कबीर अपनी क्रांतिकारिता दिखाते हैं। कबीर को अपनी बात दार्शनिक नहीं, सामाजिक आधार पर कहनी थी। जायसी ने भी प्रेम का वैश्विक रूप दिखाने के लिए भारतीय लोककथा का सहारा लिया है।  कबीर और उनके राम पर हिन्दी आलोचना द्वंद्व में फँसी रही है। कबीर को सगुण-निर्गुण की चक्की में इस तरह पीसा जाता है कि उनकी मूल संवेदना दब जाती है। प्रो. मैनेजर पांडेय ने लिखा है –विरोधी विचार का पहले पूर्ण विरोध किया जाता है। यदि विरोध से वह नष्ट नहीं होता तो उसे विकृत किया जाता है। अगर वह विरोध और विकृति की प्रक्रिया को झेलते हुए जीवित रहता है तो उसके विद्रोही स्वर को दबाकर उसे आत्मसात कर लिया जाता है।[14] कहीं कबीर के साथ यही साजिश तो नहीं हो रही है? आधुनिक समाज के निर्माण में कबीर की कविता कितना खाद-पानी देती है, यह देखना ज्यादा जरूरी है। सामंती समाज में रहते हुए भी कबीर वह सब कुछ कर चुके हैं जो आज की अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के युग में निर्भयता के साथ करना संभव नहीं है। अगर कोई साहस दिखाता है तो तस्लीमा नसरीन बनने का खतरा बना रहता है। कबीर ने समाज और सत्ता के अगुओं की खुलकर आलोचना की। सामाजिक न्याय की लड़ाई में राम कबीर के सारथी हैं। यह लड़ाई अभी भी खत्म नहीं हुई है। पाश की कविता है –

 

हम लड़ेंगे

जब तक दुनिया में

लड़ना जरूरी है।

हम लड़ेंगे

कि लड़े बिना

दुनिया में कुछ भी नहीं मिलता।

 

संदर्भ 


[1]नेमिचंद्र जैन (सं.), मुक्तिबोध रचनावली, भाग – 5; पृ. 290

[2]डॉ. धर्मवीर, कबीर के आलोचक; पृ. 31                   

[3]आचार्य हजारीप्रसाद द्विवेदी, हिन्दी साहित्य की भूमिका; पृ. 92

[4]डॉ. विश्वनाथ त्रिपाठी, लोकवादी तुलसीदास; पृ. 11

[5]प्रो. मैनेजर पांडेय, भक्ति आंदोलन और सूरदास का काव्य; पृ. 35

[6]नेमिचंद्र जैन (सं.), मुक्तिबोध रचनावली, भाग – 5; पृ. 292

[7]आचार्य रामचंद्र शुक्ल, गोस्वामी तुलसीदास; पृ. 24

[8]प्रो. नामवर सिंह, दूसरी परम्परा की खोज; पृ. 57

[9]आचार्य रामचंद्र शुक्ल (सं.), जायसी ग्रंथावली; पृ. 122

[10]नेमिचंद्र जैन (सं.), मुक्तिबोध रचनावली, भाग – 5; पृ. 292

[11]आचार्य हजारीप्रसाद द्विवेदी, कबीर; पृ. 220

[12]डॉ. वीर भारत तलवार, पल प्रतिपल (पत्रिका, अंक- 42, लेख- कबीर पर कब्जे की लड़ाई),

  पृ. 56

[13]डॉ. धर्मवीर, हंस (पत्रिका, अंक – मार्च 1998, लेख – अभिशप्त चिंतन से इतिहास चिंतन

  की ओर), पृ. 53

[14]प्रो. मैनेजर पांडेय, भक्ति आंदोलन और सूरदास का काव्य; पृ. 26

 

सहायक पुस्तकें :-

1.         गोस्वामी तुलसीदास – रामचरितमानस, गीताप्रेस, गोरखपुर

2.         आचार्य रामचंद्र शुक्ल – गोस्वामी तुलसीदास, नागरीप्रचारिणी सभा, काशी, संवत् 2049

3.         गोस्वामी तुलसीदास – कवितावली, गीताप्रेस, गोरखपुर

4.         आचार्य रामचंद्र शुक्ल – हिन्दी साहित्य का इतिहास, नागरीप्रचारिणी सभा, काशी, संवत् 2051

5.       अयोध्यासिंह उपाध्याय हरिऔध (सं.) – कबीर वचनावली, नागरीप्रचारिणी सभा, काशी, संवत् 2049

6.         श्यामसुंदर दास (सं.) – कबीर ग्रंथावली, नागरीप्रचारिणी सभा, काशी

7.         आचार्य हजारीप्रसाद द्विवेदी– हिन्दी साहित्य की भूमिका, राजकमल प्रकाशन, दिल्ली, 1991

8.         आचार्य हजारीप्रसाद द्विवेदी– कबीर, राजकमल प्रकाशन, दिल्ली, 1997

9.         डॉ. विश्वनाथ त्रिपाठी – लोकवादी तुलसीदास, राधाकृष्ण प्रकाशन, दिल्ली, 1991

10.     प्रो. नामवर सिंह – दूसरी परंपरा की खोज, राजकमल प्रकाशन, दिल्ली

11.     डॉ. धर्मवीर – कबीर के आलोचक, वाणी प्रकाशन, दिल्ली, 1997

12.     डॉ. धर्मवीर – हिन्दी की आत्मा, समता प्रकाशन, दिल्ली, 1989

13.     प्रो. मैनेजर पांडेय – भक्ति आंदोलन और सूरदास का काव्य, वाणी प्रकाशन, दिल्ली, 1997

14.     हंस (पत्रिका) – अंक (मार्च 1998)

15.     पल प्रतिपल (पत्रिका) – अंक संख्या – 42

16.     नेमिचंद्र जैन (सं.) – मुक्तिबोध रचनावली (भाग-5), राजकमल प्रकाशन, दिल्ली, 1998

17.     आचार्य रामचंद्र शुक्ल (सं.) – जायसी ग्रंथावली, नागरीप्रचारिणी सभा, काशी, संवत् 2041

 ***********************************

डॉ.अभिषेक रौशन

सहायक प्रचार्य, अंग्रेजी एवं विदेशी भाषा विश्वविद्यालय, हैदराबाद

9676584598,

araushan.jnu@gmail.com

Comments

Popular posts from this blog

"तुलसी दोहा शतक'' में गोस्वामी तुलसीदास ने किया था राम मंदिर को तोड़े जाने का जिक्र :: #AdvAnshuman

एक तर्क हमेशा दिया जाता है कि अगर बाबर ने राम मंदिर तोड़ा होता तो यह कैसे सम्भव होता कि महान रामभक्त और राम चरित मानस के रचयिता गोस्वामी तुलसीदास इसका वर्णन पाने इस ग्रन्थ में नहीं करते ? ये बात सही है कि रामचरित मानस में गोस्वामी जी ने मंदिर विध्वंस और बाबरी मस्जिद का कोई वर्णन नहीं किया है। हमारे वामपंथी इतिहासकारों ने इसको खूब प्रचारित किया और जन मानस में यह सिद्ध करने का प्रयास किया कि कोई मंदिर टूटा ही नहीं था और यह सब झूठ है। यह प्रश्न इलाहाबाद उच्च न्यायालय के समक्ष भी था। इलाहाबाद उच्च नयायालय में जब बहस शुरू हुयी तो श्री रामभद्राचार्य जी को Indian Evidence Act के अंतर्गत एक expert witness के तौर पर बुलाया गया और इस सवाल का उत्तर पूछा गया।  उन्होंने कहा कि यह सही है कि श्री रामचरित मानस में इस घटना का वर्णन नहीं है लेकिन तुलसीदास जी ने इसका वर्णन अपनी अन्य कृति 'तुलसी दोहा शतक' में किया है जो कि श्री रामचरित मानस से कम प्रचलित है। अतः यह कहना गलत है कि तुलसी दास जो कि बाबर के समकालीन भी थे,ने राम मंदिर तोड़े जाने की घटना का वर्णन नहीं किया है और जहाँ तक राम चरित मानस

लाभ-हानि, जीवन-मरण, यश-अपयश विधि हाथ:-

वशिष्ठ जी भगवान श्रीराम के वनवास प्रकरण पर भरत जी को समझाते हैं, इस अवसर पर बाबा तुलसीदास जी ने श्री रामचरितमानस की एक चौपाई में बहुत ही सुन्दर ढंग से लिखा हैं कि, "सुनहु भरत भावी प्रबल, बिलखि कहेहुँ मुनिनाथ। हानि, लाभ, जीवन, मरण, यश, अपयश विधि हाथ।" इस प्रकरण पर सुन्दर विवेचन प्रस्तुत हैं बाबा तुलसीदास जी ने कहा है कि, "भले ही लाभ हानि जीवन, मरण ईश्वर के हाथ हो, परन्तु हानि के बाद हम हारें न यह हमारे ही हाथ है, लाभ को हम शुभ लाभ में परिवर्तित कर लें यह भी जीव के ही अधिकार क्षेत्र में आता है।  जीवन जितना भी मिले उसे हम कैसे जियें यह सिर्फ जीव अर्थात हम ही तय करते हैं। मरण अगर प्रभु के हाथ है, तो उस परमात्मा का स्मरण हमारे अपने हाथ में है।" @KashiSai

अधिवक्ता दिवस-2013 की शुभकामना || Wishes for Advocate's Day-2013

3rd December, 2013 an "Advocate's Day". Be United & Fight for our Rights. with lots of Wishes & Regards Anshuman Dubey Adv. अधिवक्ता दिवस-2013 की शुभकामनाओ के साथ,  सदैव आप के स्नेह और सहयोग का आभारी... आपका प्रिय अंशुमान दुबे, अधिवक्ता Mo. 9415221561 http://a3advocate.blogspot.in/   ~ * ~ Web link for Advocate's Day of   Adhivakta Pension Vikas Samiti, Varanasi:- http://advocatepension.blogspot.in/2011/12/happy-advocates-day.html